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________________ [ 41 अधिक स्पष्टता से कहें तो मन, वचन और काया के व्यापार जो प्रात्मा का कर्म पुद्गलों के साथ सम्बन्ध कराते हैं यह साव है, और जिन व्यापारों से कर्म पुद्गलों का सागमन रुक जाता है वह संबर है। कर्म पुद्गलों का प्रात्मा के साथ तन्मय सम्बन्ध हो जाना ही बंध है । " इस प्रकार जैनमतानुसार हम स्वयम् अपनी स्थिति के लिए सर्वथा उत्तरदायी हैं। 'अज्ञानी, रोगी, दुःखी, दयाहीन, घातकी अथवा निर्बल चाहे जैसा भी कोई क्यों न हो उसका कारण इस जन्म से ही नहीं ग्रपितु अनंत काल (भूतकाल ) के जन्मों से हम जो दृश्य सूक्ष्म परन्तु सत्य पुदगलों को ग्रहण करते पा रहे हैं, और यही आत्मा के स्वाभाविक ज्ञान, मानन्द, प्रेम, दया और शक्ति धादि का अवरोध करते हैं और हमें अपकृत्य करने की प्रेरणा देते हैं । 2 f कर्म रूपी इन सब बन्धनों से हमारी प्राध्यात्मिक उन्नति रुक जाएगी ऐसा विचार कर रािश होने का कोई भी कारण नहीं है । यद्यपि मनुष्य के कर्म बहुत कुछ उसको बनाते हैं, फिर भी सत्कार्य के लिए उसमें अनंतशक्ति और अनंतवीर्य है जिससे समय समय पर कर्म के प्रभाव का दबाव होते हुए भी ये शक्तियां कर्म द्वारा किसी भी समय निःसत्व नहीं की जा सकती हैं। जैनशास्त्र कहता है कि पूर्ण धार्मिक जीवन और तप से इन सब कर्मों का नाश किया जा सकता है और आत्मा अपनी स्वाभाविक उच्च दशा को जो कि मोक्ष है, प्राप्त कर सकता है । डा. व्हलर कहता है कि नातपुत्त प्रारब्धवादी थे यह दोष प्रतिपक्षी के प्रति घृणा और उसकी अपकीति करने की दृष्टि से उत्पन्न की हुई कल्पना और परिणाम मात्र ही समझना चाहिए।" कर्म को भाड़ कर फेंक देने अथवा उसे क्षय कर देने को निर्जरा कहते हैं और सब कर्म का सर्वथा नाश याने कार्मिक पुद्गलों के ग्रात्मा की सम्पूर्ण मुक्ति ही मोक्ष है । 1 ग्रात्मा के परिणामों में फेरफार होने से, उस पर चिपके हुए कर्म भोग लेने से अथवा परिपाक पूर्व ही तपस्या से उनकी निर्जरा की जा सकती है। जब सब कर्मों का जय हो जाता है तभी मोक्ष या मुक्ति मिलनी है।" इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ के लक्षणों से यह बात स्पष्ट है कि जब तक जीव अच्छे या बुरे कर्मों से सम्पूर्ण आत्मशुद्धि द्वारा अन्तिम छुटकारा प्राप्त नहीं कर लेता है, तब तक एक या दूसरी रीति से ये कर्म आत्मा से चिपके । । 1. ... मिथ्यात्वाद्यास्तुहेतवः यस्तेवन्धः स विशेष याश्रवो जिनशासने संवरस्तनिरोधत बन्धोजीवस्य अर्पणः । अन्धोन्यानुगमात्कर्म मम्बन्धो यो द्वयोरपि ।। हरिभद्र, वही, श्लोक 50-511 2. वारेन, वही, पृ. 5 'शुद्ध आत्मा की स्वाभाविक पूर्णता भिन्न भिन्न प्रकार के कर्म पुद्गलों से श्राच्छादित रहती है । जो उसके सम्यज्ञान को आच्छादित करते हैं उन्हें ज्ञानावरणीय, जो उसके सम्यक्दर्शन को श्राच्छादित करते हैं जैसे कि निद्रा में बाधक आदि, उन्हें दर्शनावरणीय, जो आत्मा को अनंतसुख प्रकृति को ढकें रख कर उसे सुखदुःख का अनुभव कराते हैं वे वेदनीय और जो सम्यक्चरित्र के प्रति ग्रात्मा की सम्पद्धा को रोकते हैं, वे मोहनीय कर्म हैं' दासगुप्ता, वही भाग 1 . 190-191 इन चार कर्मों के अतिरिक्त मी चार प्रकार के कर्म और हैं जिन्हें आयु कर्म नाम कर्म, गोत्र कर्म और मंतराय कर्म कहते हैं। इनसे क्रमश: आयु की स्थिति, वैयक्तिक स्वभाव, कुल अथवा जाति और आत्मा की सफलता या उन्नति की अवरोधक निसर्गज शक्ति का निर्णय होता है । 3 7 , 3. व्हलर वही, पृ. 32 देखो याकोबी, इण्डि एण्टी.. पुस्त. 9, पृ. 159 160 1 1 4. अस्य कर्मणः शाटोयस्तु सा निर्जरा मता प्रात्यन्तिको वियोगस्तु देहातेमेत्रि उच्यते ॥ हरिभद्र वही श्लोक 521 5. विपाकात्तपसा वा कर्मपरीशाटो कर्मात्मसंयोगध्वंसः निर्जराः कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणः मोक्षः ... उमास्वातिवाचक, तत्वार्थाधिगम सूत्र (मोतीलाल लभाजी सम्पादित), पृ. 7, टिप्पण | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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