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प्रात्मा को जन्म और पुनर्जन्म सहित इस संसार चक्र के सब अनुभव करने पड़ते है बस इसी में हमारे सब दु:खों का मूल है और इसलिए जीव और अजीव दोनों तत्वों और उनके पारस्परिक सम्बन्ध को स्थूल रूप में समझाने के लिए जैनशास्त्रकारों ने नव तत्व का विधान प्रस्तुत किया है और ये नौ तत्व इस प्रकार हैं:-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, पाश्रव, संवर, बंध, निर्जरा और मोक्ष ।' इन सब तत्वों का जैन अध्यात्मशास्त्र में बड़ी सूक्ष्मता से विचार किया गया है, परन्तु हमें यहां इन सबका इतनी सूक्ष्मता से विचार करने की आवश्यता नहीं है ।
इन तत्वों में जिसमें चेतन हो वह जीव और जो चेतनरहित हो वह अजीव है। जैसा कि पहले ही कह पाए हैं, इस सांसारिक अस्तित्व में जीव याने प्रात्मा और अजीव दोनों साथ साथ रहते हैं। इसलिए इस शरीर से सम्बद्ध आत्मा अच्छे और बुरे सब कर्मों का कर्ता बनती है। अपने शुद्ध स्वरूप में प्रात्मा अनतदर्शन, अन्नतज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य की स्वामिनी है। वह सम्पूर्ण है । आत्मा जब अपने सत्य, शाश्वत स्वरूप में होती है तब इन चार अनन्त सिद्धियों का वह अनुभव करती है ।"
सामान्य दृष्टि से केवल मुक्तजीवों को छोड़ कर सब संसारी जीवो की शक्ति और स्वच्छता अनन्त समय से चले आते कर्मों के पुद्गलों रूपी सूक्ष्म प्रावरणों से ढकी होती है। प्रात्मा के स्वामाविक गुण कमोबेश प्रमाण में इस प्रकार प्राच्छादित रहते हैं और इसलिए पुण्य और पाप की विविध परिस्थितियां अनुभव की जाती हैं । जीव और अजीव के बाद के दो विभाग पुण्य और पाप के विचार की ओर हम इस प्रकार पहुंच जाते हैं ।
आत्मा को जो पुद्गल अच्छे और परोपकारी कार्यों के परिणाम स्वरूप चिपटते हैं, उनका समावेश पुण्य में होता है। इससे विपरीत स्थिति में जो चिपटते हैं वही पाप है।' पुण्यशील कर्म पुण्य और पापमय कर्म पाप है । जब प्रात्मा शुभाशुभ कर्म की सत्ता के अधीन इस प्रकार प्रयत्नशील होती है तो मन, वचन और काया की प्रवृत्तियां उसके इन प्रयत्नों में सहायक होती हैं। इससे धार्मिक पुद्गलों के आगमन को अवसर मिलता है और प्रात्मा उन पुद्गलों के साथ बंध जाती है अथवा उनके चिपटने में वह रुकावट डालती है । इस प्रकार प्राश्रव, संवर और बंध अस्तित्व में आते हैं।
1. "पुद्गल चेतनाहीन है, प्रात्म चेतन है। पुद्गल में इच्छा नहीं है परन्तु आत्मा द्वारा उसका ढांचा बनता है । प्रात्मा और पुद्गल का संबंध भौतिक हैं, और वह आत्मा की प्रवृत्तियों से प्रभावित होता है । बंधन को कर्म कहते हैं क्योंकि वह आत्मा का कार्य याने कर्म है । यह पौद्गालिक है और अति सूक्ष्म कार्मिक पुद्गलों का यह ऐसा सूक्ष्म बन्धन है कि वहात्मा को ऊर्ध्वगमन कर अनंतज्ञान, अनंतसुख और अव्याबाध शांति के स्थान मोक्ष में नहीं जाने देता है। "जैनी, वही, पृ. 26; कर्ता शुभाशुभं कर्मभोक्ता कर्मफलस्य च...हरिभद्र, वही, श्लो. 48 । 2. जीवा-जीवो तथा पुण्यं पापमांश्रवसंवरी। बन्धश्च निर्जरामोक्षो नव तत्वानि तन्मते ।। हरिभद्र, वही, श्लो. 47 । देखो कुन्दकुन्दाचार्य, पंचास्तिकायसार, गाथा 108 भी। 3. देखो स्टीवेन्सन (श्रीमती), वहीं, पृ. 299-311 । 4. चैतन्य लक्षणो जीवे, यश्चैतद्व परीत्यवान् । अजीवः स...। हरिभद्र, वही, पृ. 49 । 5. दर्शन और ज्ञान में जैन विभेद करते हैं। पदार्थों के सामान्य ज्ञान को वेद दर्शन कहते हैं जैसे में पट देखता हं । पदार्थ कि विशिष्टता का जानना ज्ञान है जैसे मैं न केवल पट ही देखता हूं अपितु यह भी जानता हूं कि वह किसका है, किस जाति का है, कहां का बना है आदि आदि । परिचय करते सबसे पहले दर्शन होता है जिसके पश्चात् ज्ञान । शुद्ध प्रात्मा अनंतदर्शन और अनंतज्ञान पूर्ण विशिष्टता सहित होता है-दासगुप्ता, वही. भाग 1, पृ. 129 1 6. जैनी, वही पृ. 1। 7. पूण्यं सत्कर्म पुद्गलाः । हरिभद्र, वही, श्लो. 49। पापं तद्विपरीतं तु...वही श्लो. 501
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