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________________ [57 अपने गुरू से पृथक होने के पश्चात् गोशाल ने श्रावस्ती में एक कुभारण के घर में अपना मुख्य स्थान बना कर बहुत प्रभाव जमा लिया था।' महावीर से पृथक होकर तुरन्त ही उसने अपनी साधुता की सर्वश्रेष्ठ दशा अर्थात् जिन पद प्राप्त होने की घोषणा कर दी थी। "महावीर ने स्वयम् केवलज्ञान प्राप्त किया उसके दो वर्ष पूर्व ही गोशाल ने अपना यह दावा प्रस्तुत कर दिया था।" जैन दन्तकथानुमार महावीर ने गोशाल को फिर कभी प्रत्यक्ष में नहीं देखा । उनके केवल ज्ञानी हुए पश्चात् चौदहवें वर्ष में कदाचित् पहली बार हो वे श्रावस्ती पहुंचे मालूम होते हैं और वहीं उसके जीवन के अन्तिम दिनों में उनने उसको देखा हो ऐसा लगता है । ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि यहां गोशाल का द्वैध और अस्थिर स्वभाव बहुत प्रखर हो गया था और अपने गुरू' के प्रति अशिष्ट वर्तन का उसे अन्त समय में पश्चात्ताप हुअा था । इतना होते हुए भी एक बात हमें नहीं भूल जाना चाहिए कि महावीर और गोशाल का सम्बन्ध या यों कहिए कि भारत के धार्मिक उत्थान की महान लहर में मंखलिपुत्त का स्थान कुछ अधिक स्पष्टता से विचारे जाने की अपेक्षा रखता है। डॉ. बरुया कुछ भ्रांति पूर्वक कहता है कि "इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जैन अथवा बौद्ध आधारों से मिलने वाली सूचनामों से यह प्रमाणित नहीं होता है कि गोशाल महावीर के दो ढोंगी शिष्यों में से, जैसा कि जैन मानते हैं एक था। उन प्रमाणों से तो इससे विपरीत बात ही सिद्ध होती है अर्थात् मैं यह कहना चाहता हूं कि इस विवादग्रस्त प्रश्न पर निश्चित अभिप्राय देने का इतिहासवेत्ता यदि प्रयत्न करेंगे तो उन्हें यह कहना ही पड़ेगा कि इसके लिए यदि कोई भी ऋणि हो तो निःसंदेह वह गुरू है न कि जैनों का मान लिया हुअा ढोंगी शिष्य । इस विद्वान को यह भ्रांति हो गई है कि महावीर पहले-पहल पार्श्वनाथ की धर्म-सम्प्रदाय में थे, परन्तु साल भर पश्चात् जब वे नग्न रहने लगे, आजीवक सम्प्रदाय में वे जा मिले। यह मान्यता प्रमाणिक जैन आधारों और दन्तकथानों की उपेक्षा करती है इतना ही नहीं अपितु गोशाल के अनुयायी पाजीवक क्यों कहलाए इस तथ्य का अज्ञान भी प्रकट करती है । जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि पार्श्व और महावीर के धर्म-सिद्धान्तों में भेद महावीर की विचार प्रगति का ही था और आजीवक शब्द उस जाति के प्रति घृणा प्रदर्शित करने के लिए ही था कि जिसे जैन एवम् अन्य लोग आजीवक सम्प्रदाय की मूल स्थिति व्यक्त करने को प्रयोग किया करते थे ।' इस प्रकार यह असम्भव था कि महावीर प्राजीवकों की मम्प्रदाय में जा मिलते । फिर इस नाम का कोई सम्प्रदाय गोशाल के अपने गुरू से विद्रोह करने के पूर्व कोई था ही नहीं क्योंकि गोशाल स्वयम् ही इस सम्प्रदाय का मूल संस्थापक था। 1. स्वामिनः पार्वात्स्फिटित: श्रावस्त्यां तेजोविसर्गमातापयति...) -अावश्यक सूत्र पृ. 214 । 2. शार्पटियर, कैहिई, भाग 1, पृ. 159 । 3. "कुछ जैनों का यह विश्वास है कि मृत्यु से पहले इतना घोर पश्चात्ताप करने के कारण वह नरक में नहीं, अपितु किसी एक देवलोक में ही ही गया होगा।" -स्टीवन्सन, श्रीमती, वही, पृ. 60 । 4. देखो, वही । "उसका अन्तिम कार्य था अपने शिष्यों के समक्ष महावीर के अपने सम्बन्ध के वक्तव्य की सत्यता का स्वीकार करना और उन्हें अपनी लज्जा की प्रकट घोषणा करने एवम् हर प्रकार की अवज्ञा पूर्वक अपना अन्तिम संस्कार करने का आदेश दिया था ।" -हरनोली, वही, पृ. 260 । 5. बरुपा वही, पृ. 17-18। 6. वही। 7. “यह स्पष्ट हैं कि प्राजीवक शब्द बौद्धों में भी वृणासूचक ही था और वह मस्करिन या एक दण्डिन जैसे हीन लोगों के लिए ही प्रयोग किया जाता था ।" -हरनोली, वही, पृ. 260। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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