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________________ 58 ] यह स्पष्ट तथ्य है कि गोशाल और उसके अनुयायियों के विषय में जो भी हम जानते हैं उपका आधार जैन और बौद्ध ग्रन्थ ही हैं । "इनका वर्णन अवश्य ही हमें मावधानी से स्वीकार करना होगा। परन्तु अावश्यक तथ्यों में दोनों प्राधारश्रोत एक मत हैं। इसलिए वह वर्णन विश्वस्त होना चाहिए । दो स्वतंत्र प्राधारों से उनकी प्राप्ति उन्हें और भी विश्वस्त कर देती है। चाहे जहां से छुटपुट दो चार बातें संग्रह कर लेने से ऐसा सप्रभारण साधन नहीं मिल जाता है कि जिससे हम यह कहने को प्रेरित हों कि "ऋणि कोई हो तो वह निश्चय ही गुरु है न कि जैनों का माना हुआ ढ़ोंगी शिष्य।" ऐसा कहने का खास कारण तो यह है कि जिन साधनों मे उपरोक्त व्यापक अनुमान किया गया है, वे ही उसके विरूद्ध जाते हैं । एक या दूसरा निर्णय करने के पूर्व विद्वान पण्डित पालोचकों को यह विचारने की कहते हैं कि "महावीर के पूर्व गोशाल के जिनपद प्राप्ति की बात भगवती में दिए मंखलिपुत्त के इतिहास से निशंक सिद्ध होती है और उसमें की प्रमुख प्रमुख घटनाएं कल्पसूत्र में दिए महावीर चरित्र से भी समर्थित होती हैं। अच्छा तो यही होता कि विद्वान पालोचक को उक्त तथ्य का विचार करने की बात ही नहीं कहता । ऐसा लगता है कि विद्वान जानबूझ कर समस्त घटना के विषय में गंभीर भ्रम उत्पन्न करना चाहता है। सूत्र में कोई भी स्थान पर या समस्त जैन साहित्य में कही भी गोणाल के जिनपद प्राप्ति का उल्लेख नहीं है । वहां इतना ही कहा गया है कि गोशाल स्वतः अपने आप जिन अथवा तीर्थंकर बन बैठा था। बुद्ध ने उसके प्रति अब्रह्मचर्य का दोष लगाया है। फिर महावीर भी उसके प्रति ऐसा दोष लगाते हैं इतना ही नहीं अपितु वे इस विषय में इतने ही जोरदार शब्द भी प्रयोग करते हैं। सूत्रकृतांग में महावीर के शिष्य आर्द्रक और गोशाल में हुए संवाद में गोशाल कहता गया है कि हमारे नियमानुसार कोई भी साधू...कुछ भी पाप नहीं करता है...स्त्री के साथ संभोग करता है। वह अपने अनुयायियों की 'स्त्रियों के दास' का दोष लगाता है और कहता है कि 'वे सयमी जीवन नहीं बिता रहे हैं। ऐसे नैतिक-नियम-विरुद्ध सिद्धान्तों के प्रचार से कुख्यात व्यक्ति जिनपद, प्राप्ति योग्य और प्राप्त कसे कहा जा सकता है ? यह तो सुनने में ही अद्भुत लगता है कि जब कि यह कहा जाता है कि उसके जिनपद प्राप्ति का समर्थन जनसूत्र ही करते हैं। एक अन्य स्थान पर विद्वान लेखक भगवतीसूत्र में बताए गोशाल के छह पूर्व जन्मों का विशिष्ट ममयों की बात कहता है और यह निष्कर्ष निकालता है कि 'गोशाल के छह पूर्व जन्मों का भगवती का उल्लेख चाहे विचित्र या काल्पनिक ही लगता हो परन्तु प्राजीवक पंथ के इतिहास को गोशाल से 117 वर्ष पूर्व खींच ले जाने की इतिहासकार को सहायता करता है ।...'' इस पर से प्रकट है कि महावीर के सत्ताईस भवों की कथा यहां भूला दी गई है । 'आजीवक पंथ का प्राकमखलि इतिहास' रचने के लिए लेखक किस प्रकार प्रेरित हुग्रा है यही समझा नहीं जा सकता है।' इस प्रकार डा. बरुपा ने समीक्षक के विचार के लिए अनेक बातें प्रस्तुत की हैं, परन्तु प्रत्येक बात के लिए उसने स्वयम् यह भी कहा है कि यह कल्पना का महा प्रयोग है।' आजीवक के प्रति बुद्धिगम्य सहानुभूति पर ___ 1. वही, पृ. 261। . बरुपा, वही, पृ. 18 । --3. अजि जिरणप्पलावी...अकेवली केवलिप्पलावी...विहरह । भगवतीसूत्र, अगमोदय समिति, शतक 15, प. 659 । देखो प्रावश्यकसूत्र, 4 214; शार्पटियर, वही, पृ. 159 । 4. देखो हरनोली, वही, पृ. 261। 5. याकोबी, सेबुई, पुस्त, 45, पृ. 411। 6. वही, पृ. 245,270 । विजयराजेन्द्रसूरि, अभिधान राजेन्द्र, भाग 2, पृ. 103। 7. बरुया, वही, पृ. 5। 8. बरुमा, वही, पृ. 7। 9. वही, पृ. 22 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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