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________________ [59 रचित अनुमानों को स्थायी करने को प्रस्तुत किए गए सभी तर्कों का एक एक करके बुद्धिपूर्वक विचार किया जाए तो गोशाल पर एक छोटा सा निबन्ध ही लिखना होगा। फिर भी इतना तो कह देना अावश्यक है कि विद्वान डाक्टर ने जैन और बौद्ध दंतकथानों को बहुतांश में असत्य सिद्ध करने का ही इसके द्वारा प्रयत्न किया है जब कि. डा. याकोबी कहता है कि 'खास प्रमाणों की अनुपस्थिति में इन दंतकथानों को अवश्य ही हमें विशेष ध्यान मे देखना चाहिए।' फिर भी इतना तो अवश्य ही सत्य है कि 'गोशाल का तत्वज्ञान इस देश में एकदम ही नवीन नहीं था। यह निश्चित है कि अनेक विरोधी सिद्धांतों और परस्पर असंगत मान्यताओं घनिष्ट वातावरण में महावीर ने जैनसंघ की जितनी भी सफलता प्राप्त की वह नि:संदेह भारतीय विचार के पद्धति पूर्वक विकास के अनुरूप ही थी। फिर डा. याकोबी के अनुसार मर्यादित रीति से यह कहने में भी कोई विरोध नहीं है कि 'महावीर के सिद्धांत पर अधिक से अधिक प्रभाव मखलि के पुत्र गोशाल का पड़ा है। क्योंकि गोशाल के व्यावहारिक और अव्यावहारिक जीवन का निश्चित रूप से स्थायी प्रभाव महावीर के मानस पर सम्भवतया पड़ा था । एक बात और भी कही जा सकती है और वह यह कि विचार दृष्टि से गोशाल प्रारब्धवादी था ] वह यह मानता था कि 'उद्यम, परिश्रम या प्रारुप अथवा मनुष्यबल जैसी कोई भी वस्तु नहीं हैं। सब कुछ अपरिवर्तनीय रूप में निश्चित है।' व्यवहारिक जीवन में वह अब्रह्मचारी ही था। इसलिए स्वभावतया उसके जीवन के पापमय और निर्लज्ज व्यवहारों ने साधू समाज के लिए खूब कठोर नियमों का बनाना उन्हें अनिवार्य प्रतीत हुप्रा और नितान्त प्रारब्धवाद का उसका सिद्धान्त चरित्रहीन अनैतिक जीवन में परिणत होता भी लगने लगा। जैनधर्म ऐसे प्रारब्धवाद को स्वीकार नहीं करता है क्योंकि उसकी तो यह शिक्षा है कि यद्यपि कर्म ही सब बात का निर्णायक हैं, फिर भी हम पूर्व कर्मों पर अपने वर्तमान जीवन द्वारा प्रभाव डाल सकते हैं ।"7 इस प्रकार महावीर के जीवन पर और उनके संस्कारित धर्म पर गोशाल का कुछ भी प्रभाव पड़ा है तो बम इतना ही पड़ सकता है न कि इससे कुछ भी अधिक । फिर यह भी हम एक बार और कह दें कि जैनसंघ के इन अनिष्ट मतभेदों के कारण "भारत भर में एक धर्मचक्र स्थापन करने की महावीर की प्रवृत्ति अत्यन्त संकटापन हो गई थी।" 1. वही। 2. याकोबी, वही, प्रस्ता. पु. 331 3. वरुपा, वही, पृ. 27 । 4. 'जब कि संजय के तर्क सब नकारात्मक हैं, गोशाल ने अपने 'तेरासिय' याने त्रिभंगी न्याय कि कदाचित हो, कदाचित् न हो, और कदाचित हो और न हो द्वारा महावीर के सप्तभंगी न्याय का याने स्याद्वाद का मार्ग पहले से ही प्रशस्त कर दिया था। बेल्वलकर और रानाडे, वही, प. 456-7 । देखो, हरनोली, वही, पृ. 262 । 5. याकोबी, वही, प्रस्तावना प. 29 । 6. हरनोली, उवासगदसामो, भाग 1, पृ. 97, 115, 116 । देखो वही, भाग 2, पृ. 109-110, 132 । 7. श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 60 । “गोशाल के चरित्र के कारण ही कदाचित् महावीर को पार्श्वनाथ के चतुर्याम धर्म में ब्रह्मचर्य का पांचवां व्रत बढ़ाना पड़ा हो।" -वही, पृ. 59। देखो वही, पृ. 185%; हरनोली, वही, पृ. 264 । 8. शास्त्री-बैनरजी, वही, पृ. 561 "ई. पूर्व छठी से तीसरी सदी में बौद्धधर्म एक नायक के नेतृत्व में सारे भारतवर्ष में और उससे परे के देशों में भी फैल गया था। परन्तु मतभेद ने जैनों की प्रारम्भ से ही रीढ़ तोड़ दी थी, फिर भी जैनों को यही जानकर सन्तोष होता है कि एक समय के शक्तिशाली आजीवक तो आज केवल स्मरण में ही अवशेष हैं।" -वही, पृ. 58 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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