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________________ [ 107 आपनं सत्य ही कहा है ;सत्यधर्म का मार्ग प्रापने दिखाया है। मोक्ष और शांति का आपका मार्ग अद्विवतीय है।...'' कूरिणक के उत्तराधिकारी उदय अथवा उदायिन के विषय में जैन एवं बौद्ध अनेक दन्तकथाएं प्रस्तुत करते हैं । इन दन्तकथाओं को निर्देश करते हुए डा. रायचौधरी कहते हैं कि 'पुराणों के अनुसार प्रजातशत्रु का उत्तराधिकारी दर्शक था । प्रो. गीगर अजातशत के पश्चात् दर्शक के नाम का प्रवेश मूल मानता है क्योंकि पाली शास्त्रों में असंदिग्ध रूप से उल्लेख है कि उदायीभद्र अजातशतु का पुत्र था और सम्भवत या उसका उत्तराधिकारी भी।' यद्यपि मगधराज के रूप में दर्शक के अस्तित्व की वास्तविकता मास के स्वप्न-वासवदत्ता के अविष्कार से प्रमामिण हो जाती है फिर भी बौद्ध एवम् जैन साक्षियों के समक्ष यह विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता है कि अजातशत्रु का निकटस्थ उत्तराधिकारी था।" जिस जन साक्षी का विद्वान डॉक्टर ने निर्देश किया है वह हरिभद्रसूरि की आवश्यकटीका और हेमचन्द्र के त्रिषष्टि-शलाका एवम् परिशिष्ट पर्वन, और टानी का कथाकोश' है। इन ग्रन्धों में अभिलिखित दन्तकथाएं पाली धर्मशास्त्रों की दन्तकथायों से मेल नहीं खाती हैं। डॉ. प्रधान के शब्दों में 'महावंश के अनुसार अजातशत्र की उसके पुत्र उदायीभद्र ने हत्या कर दी थी।" पर स्थविरावली चरित्र में कहा गया है कि उदायिन को पिता अजातशत्र की मृत्यु पर इतना अधिक शोक और दुःख हया कि वह चंपा से उठाकर राजधानी ही पाटलीपुत्र ले गया था । ____ इस जैन दन्तकथा को वायुपुराण भी समर्थन करता है क्योंकि उसके अनुसार उदायी ने अपने राज्यकाल के चौथे वर्ष में।" कुसुमपुर (पाटलीपुत्र) का नगर बसाया था और इसलिए यह निश्चित सा ही है कि उदायिन 1.तए णं कुरिण ए राया...महावीर...वंदति...एवं वयासी ..-सुप्रक्खारते मंते, आदि-प्रोपपातिक, सूत्त 36. प.831 2. देखो पार्जीट र, डाइनेस्टीज आफ दी कलि एज, 21, 69; प्रधान, वही, पृ. 210 । 3. देखो गीगर, महावंश, परिच्छेदो 4, गाथा 1-2 । 4. रायचौधरी, वही, प. 1301 "विष्णपुराण का राजवंशक्रम कि जिसमें अजातशत्रु और उदयाश्व के बीच में दर्शक का नाम आता है, की हमें उपेक्षा कर देना होगी...।' प्रधान वही और वही स्थान । बिबिसार के उनके पुत्रों में से ही दर्शक हो जिसने अपने पिता के जीवन काल में ही राजकाज में भाग लिया हो। देखो वही, पृ. 212। 5. कोरिणक: ... मृतः...तदा राजान उदायिनं स्थापयन्ति...यावश्यकसूप, पृ. 687 । 6. हेमचन्द्र, वही, श्लो. 22 । देखो निषष्टि-शलाका, पर्व 10, लो. 426, पृ. 172 । 7. देखो टानी, वही, पृ. 17718. देखो गीगर. वही, गाथा ।। 9. प्रधान, वही, पृ. 216 । देखो वही, पृ. 219 । सिंहली इतिवृत्तकार कहते हैं कि अजातशत्रु से लेकर पर सारे राजा पितृघाती थे।' रायचौधरी, वही, पृ. 133; हेमचन्द्र, परिशिष्टपर्वन, मर्ग 6. श्लो. 32-180। देखो आवश्यक सूत्र, पृ. 687,6891 10. 'पाटलीपुत्र की पसन्दगी उसके साम्राज्य के केन्द्र में स्थित होने के कारण हुई थी कि जो आज के उत्तर-विहार को भी पमाविष्ट करता था। फिर उसका गंगा एवं सोन नदियों के संगम पर स्थित होना भी व्यापारिक और सैनिक दृष्टि से महत्व का था। इस सम्बन्ध में यह उल्लेख भी मनोरंजक होगा कि कौटिल्य साम्राज्य की राज घानी के लिए नदियों का संगम-स्थल की ही सिफारिस करता है '...रायचौधरी वही. पृ. 13।। 11. देखो पार्जीटर, वही, प. 991 प्रधान, वही, प. 2163; रायचौधरी. वही और वही स्थान ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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