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________________ 108] पिता की मृत्यु घटना के लिए उत्तरदायी नहीं था । यह नहीं कहा जा सकता है कि बौद्धों ने उसका उसके पिता जैसा ही चित्रण क्यों किया है कि उसका सत्ता और स्थिति का लोभ अपने ही पिता के प्राणों के प्रति स्वाभाविक सहज प्रेम पर इस अधिकता से हावी हो गया था। यदि बौद्धों की महावंश में दी हुई दन्तकथा किसी भी प्राचार पर होती तो जैन लेखक इसका भी उसी भांति निर्देश अवश्य कर देते जैसा कि उनने कुणिक के विषय में उसके पिता की मृत्यु सम्बन्धी घटना का निर्देश किया है। पक्षान्तर में जैन कहते हैं कि उदायिन एक निष्ठ जैन या उसकी धाज्ञा से उसकी नई राजधानी पाटलीपुत्र के केन्द्र में एक भव्य जैन मन्दिर बनवाया गया था । ' फिर जैन साधू भी उसके पास बिना रोक-टोक प्राते जाते थे यह भी इस बात से प्रमाणित होता है कि उसका वध किमी साधु-वेशी राजकुमार द्वारा कि जिसके पिता को उसने राज्यच्युत कर दिया था, जैसा कि पहले कहा जा चुका हैं, किया गया था । इसी प्रसंग से यह अनुमान किया जा सकता है कि एक चुस्त जैन की भांति वह जैनों के मामिक पर्व नियम पूर्वक पालता था क्योंकि पौषध के दिन ही एक जैनाचार्य, अपने नए शिष्य के साथ कि जिसने अस्त्र छुया रखा था, राजमहल में गए थे और राजा को उनने धर्म सुनाया था । " अथवा जिनकी सत्ता में मगध साम्राज्य ने निश्चित स्वरूप प्राप्त किया था, के विषय में संक्षेप में, जैनों का इतना ही कहना है। यहां यह भी स्पष्ट कर देना उचित है कि जैनधर्म के साथ उन वंशों के सम्बन्ध का विचार करते हुए हम सूक्ष्म विवरण में यद्यपि नहीं उतरे हैं और हम ऐसा इस अध्याय में विवक्षित किसी भी राजवंश के विवरण में नहीं उतरना चाहते हैं परन्तु इससे यह नहीं समझा जाना चाहिए कि वे सूक्ष्म बातें अर्थहीन हैं, परन्तु इतना ही कि उत्तर-भारत के जैनों के इस साधारण ऐतिहासिक सर्वेक्षण में उन सूक्ष्मविवरणों . में उतरना न तो शक्य ही है और न इष्ट । अब उदादिन के उत्तराधिकारी का हम विचार करें। बौद्ध दन्तकथा के अनुसार तो उसके उत्तराधिकारी थे प्रनिरुद्ध, मुण्ड और नागदासक उन दन्तकथाओंों में यह भी कहा गया है कि ये सब पितृता थे और इसलिए "जनमत उनसे रुष्ट हो गया एवम् इस राजवंश का उच्छेद कर उसके धामात्य शुशुनाग (शिशुनाग ) को उनने राजा बना दिया । "" परन्तु जैन और पौराणिक दन्तकथाएं अनिरुद्ध और ग्रन्य निर्बल निर्वीयों का प्रवगणना कर देती है अथवा उन्हें भुला देती है और बौद्धों के उदायीभद्र के उत्तराधिकारी रूप में किसी नन्द या नन्दिवर्धन को ला बैठाती हैं ।" जैनी कहते हैं कि उदायिन की मृत्यु पर उसके बिना उत्तराधिकारी के मर जाने से अमात्यों ने पांच राजचिन्हों याने हाथी, घोड़ा, छत्र, चामर और कलश सजा कर पूजा कर नगर वीथियों में घुमाए। इनकी शोभायात्रा मार्ग में नाई से उत्पन्न वेश्या पुष नन्द के विवाह की शोभायात्रा से जब जा मिला तो इन पांचों 1. नगरनामा पोदानि गृह कारितं... आवश्यकसूत्र. पू. 689 देखो हेमचन्द्र वही श्लो. 181 2. स राजाष्टमी चतुर्दश्योः पौषधं करोति धावश्यकसूत्र, पृ. 690 देखो हेमचन्द्र वही, श्लो. 186, वही लोक 186-230; शापेंटियर केहि भाग 1 पू. 164 1 3. रायचौधरी, वही, पृ. 133 देखो गीगर, वही गाया 2-6 प्रधान, वही, पृ. 218-219 स्मिथ, वही, , पृ. 36; रेप्सन केहि भाग 1, पृ. 312-313 1 4. देखावश्यक Jain Education International " पु. 690 बादि हेमचन्द्र वही, श्लो. 242: पाटर. वही, पृ. 22,691 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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