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________________ आमुख श्री चिमनलाल जैसिंह शाह इण्डियन हिस्टोरिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट' के अग्रगण्य विद्यार्थियों में से एक हैं और उनका यह ग्रन्थ उनकी इस महान् संस्था की प्रतिष्ठा रूप ही सिद्ध होगा । श्री शाह धर्म से जैन हैं और उन्होंने अपनी गवेषणा का विषय जैन धर्म का प्राचीन इतिहास पसन्द किया जिसके अध्ययन के परिपाक रूप में इस ग्रन्थ की रचना हुई है। भारतवर्ष के सब महान् धर्मों के अवलोकन में जैन धर्म की अधिक उपेक्षा की गई है। इस ग्रन्थ में जैन धर्म के प्राचीन इतिहास में जो-जो ऐतिहासिक एवम् दंतकथा रूप में है वही सन्द्र नहीं दिखाया गया है, अपितु इस महान् धर्म के संस्थापक के सिद्धांत उनके शिष्यों के बीच हए मतभेद और उसके फलस्वरूप नए नए सम्प्रदायों के उद्भव, और उस बौद्ध-बंधूधर्म के साथ हए सतत संघर्ष का विवेचन भी इसमें किया गया है कि जिसके साथ इस देश में जन्म लेते हुए भी यह तो आज तक जीवित और टिका हा है और बौद्ध-धर्म का प्रायः नाम शेष ही हो गया है। श्री शाह के जैन धर्म के इस इतिहास में दो सीमाए देखने में आयेंगी--एक तो भौगोलिक और दूमरी कालक्रम की । दक्षिण-भारत में सर्वत्र जैन धर्म बहुत शीघ्र ही फैल गया था और वहां उसने ऐसे नए समाज की स्थापना कर ली थी कि जिसके न केवल गुरू ही दूसरे थे अपितु व्यवहार और विधि-विधान एवम् प्राचार-विचार भी भिन्न हो गए थे । संक्षेप में दक्षिण भारत के जैन धर्म का इतिहास उत्तर भारत के जैनधर्म के इतिहास में एक दम ही भिन्न है और वह अपनी भिन्न ऐतिहासिक इकाई बनाता है। इसीलिए श्री शाह ने अपने इस ग्रन्थ की भौगोलिक सीमा पार्यावर्त याने उत्तर भारत ही रखी है। श्री शाह की दूसरी सीमा काल सम्बन्धी है। उनका यह इतिहास ई. सन् 526 में समाप्त हो जाता है जब कि वल्लभी की सभा या परिषद में जैन धर्म के सिद्धांत का अन्तिम रूप निश्चय और स्थिर किया गया था। जैन धर्म के इतिहास में यह प्रसंग अत्यन्त महत्व का अवस्थान्तर निर्देशक था। इसके पूर्व जैनधर्म प्राथमिक मरल दशा में ही था। परन्तु वह दशा सिद्धान्त के संहिता-बद्ध किए जाने के पश्चात् एक दम ही विलय हो गई। इस काल के पश्चात् जैनधर्म नियत एवं स्थायी भाव धारण करता हा दीख पड़ता है और उसकी वास्तविकता एवम् सत्यप्रियता भी वह गुमाता जाता है। फिर भी श्री शाह ने गवेषणा के लिए प्राचीन समय ही पसन्द किया है क्योंकि वह इतिहास प्रति रोचक और संस्कृति की दृष्टि से बहत ही महत्व का है। प्राशा है कि इस ग्रन्थ की पद्धति के विषय में अत्यन्त सूक्ष्मदर्शी इतिहासवेत्ता को भी कुछ विशेष प्रापत्तिजनक बात मालूम नहीं होगी क्योंकि एक तो मनुष्य-कृति सम्पूर्णतया दोष रहित तो हो ही नहीं सकती है, और दूसरे श्री शाह की यह प्रथम रचना है. इन दोनों ही दृष्टि से यह सम्पूर्ण ग्रन्थ पाठकों और समालोचकों की उदारता का पर्याप्त पात्र होगा यह आशा है । फिर भी यह कहना आवश्यक है कि श्री शाह ने दूसरे विद्वानों का कहा अथवा प्रतिपादन किया हुआ देख कर ही संतोष नहीं कर लिया है क्योंकि तब तो वह स्वतन्त्र गवेषणा नहीं अपितु संग्रह मात्र ही हो या रह जाता । उन्होंने इस ऐतिहासिक ग्रन्थ की रचना करने में प्रत्येक मूल वस्तु का अध्ययन और मनन स्वयम् किया है, मतमतांतरों के गुण-दोषों का विवेचन किया है, मूल वस्तु की मूल वस्तु के साथ तुलना की है, और इस प्रकार अथक परिश्रम ले कर एक ऐतिहासिक की उचित निष्पक्ष दृष्टि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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