SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ इस कठिनाई के साथ-साथ दो बातें और हमें विशेष रूप से लक्ष में रखने की हैं। पहली यह कि दोनों का विरोध जैन साधू नग्न रहें अथवा अपने शरीर को ढकने के लिए एक या अधिक वस्त्र रखें इस प्रश्न पर है । दूसरी यह कि दोनों में सम्प्रदायभेद के समय के विषय में सर्वं साधारण एक मान्यता है । दोनों सम्प्रदायों के नाम ही उनके अर्थ का सूचन करते हैं। दिशा रूप वस्त्र है जिनका ऐसे दिगम्बरों की यह मान्यता है कि साधु के लिए एक दम नग्नता आवश्यक है। दूसरी सम्प्रदाय का श्वेत वस्त्र पहनने वाले यह अर्थ होता है। महावीर नग्न रहते थे इसे श्वेताम्बर भी स्वीकार करते हैं। फिर भी वे कहते हैं कि वस्त्र के उपयोग मात्र से ही उच्चतम मोक्ष पद रुक नहीं सकता है । " यदि यह निर्णय सत्य हो तो जैनधर्म के मूल में कौन सम्प्रदाय होना चाहिए इस विषय में दोनों को ही वादविवाद करना आवश्यक नहीं है क्योंकि उनकी मान्यतानुसार तो जैनधर्म आदि और अन्त रहित है । ऐतिहासिक गौर साहित्यिक दृष्टि से हम इतना ही कह सकते हैं कि श्वेताम्बर महावीर की अपेक्षा पार्श्वनाथ का अधिक अनुसरण कर रहे हैं। पक्षान्तर में दिगम्बर पार्श्वनाथ की अपेक्षा महावीर के अधिक निकट हैं क्योंकि महावीर ने अपना साधु जीवन नग्नावस्था में ही बिताया था और पार्श्वनाथ एवम् उनके अनुयायी सवस्त्र जीवन बिताते थे । इसके सिवा यदि श्वेताम्बरों के शास्त्रीय प्रमाण स्वीकार किए जाए तो एक कदम धागे बढ़ कर यह भी कहा जा सकता है कि दिगम्बरों ने महवीर के वचनों का जहां प्रक्षरश: पालन किया है वहां श्वेताम्बरों ने किसी भी नियम का उल्लंघन नहीं किया है क्योंकि महावीर ने अपनी निर्विकल्प ध्यानस्थ अवस्था में जो अनुभव किया उसे चाहे जिस पाध्यात्मिक दशा में उनके अनुयायी चिपके रहें, ऐसी उनकी धारणा नहीं थी । 65 इतना होने पर भी जैनधर्म के मूल में दोनों में से कौन है यह प्रश्न ही चर्चा का विषय नहीं है क्योंकि जनसंघ में जैनधर्म का प्रावि धनुयायी कोन है अथवा कौन हो सकता है इसका निर्णय करना ही कठिन है। इतिहास के अभ्यासियों का यह विषय नहीं है। उनकी खोज का विषय यदि कुछ है तो यही कि जैनसंघ में यह पंथभेद किस समय हुआ था? जो तथ्य हमें प्राप्त हैं उसको विचार पूर्वक समीक्षा करना भी हमारे लिए सम्भव नहीं है। हम कुछ कर सकते हैं तो इतना ही कि महावीर के समय में मंगलिपुत्त जब अपने मनस्वी मत की प्ररूपणा की । तब ही इस सम्प्रदाय भेद का कीड़ा जनसंघ को लग गया था उसकी मृत्यु के बाद ग्राजीवकों का बल भी बहुत घट गया था फिर भी कुछ निगंठ ऐसे थे कि जो नग्नता, कमण्डलु की अनावश्यकता, जीवन विषयक उपेक्षा, दण्ड का विशेष चिन्ह और अन्य अनेक बातों में थाजीवकों के साथ सहानुभूति रखते थे ।" यह सहानुभूति बहुत सम्भव है कि भद्रबाहु के समय में ही बताई गई होगी जब कि दिगम्बरों की मान्यतानुसार पंथभेद का श्रीगणेश 1. तपस्वियों में नग्नता महावीर काल में 'प्रवेक सम्प्रदायों में व्यवहार में थी, परन्तु बौद्ध एवम् अन्य अनेक जो कि इसको जंगली मोर प्रशोभन मानते थे, उनमें यह निदित गहिन भी थी।" इलियट, वही, पृ. 112 । 2. देखो याकोबी, सेबुई पुस्त. 119-129 "संभावना यह लगती है कि सदा से संघ में दो मत या पक्ष रहे थे । वृद्ध और निर्बल जो कि वस्त्र पहनते थे और जो पार्श्वनाथ के समय से चले आ रहे थे और जो स्थविकल्पी कहे जाते थे । श्वेताम्बरों के प्राध्यात्मिक गुरू ये ही हैं। दूसरा पक्ष था जिनकल्लियों का जो महावीर की भांति ही नियम का अक्षरश: पालन करते थे और ये ही दिगम्बरों के अग्रदूत है।" श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 79 1 3. हरनोली, वही, पृ. 267 आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy