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________________ 661 पहले पहल हुआ था । ' परन्तु तब तो यह भेद स्पष्ट प्रकाश में नहीं आया होगा। फिर जब हम स्थूलभद्र और आर्य महागिरि की दन्तकथाओंों का विचार करते हैं और ई. सन् की पहली सदी के अन्त तक पहुंचने हैं तो हमें जैनसंघ में श्वेताम्बर और दिगम्बर भेद की मान्यताएं स्पष्ट रूप से दिखलाई देती हैं ।" यद्यपि दोनों सम्प्रदायों द्वारा प्रस्तुत की गई दन्तकथाएं प्रतिरंजित और निर्बोध दिखलाई देती हैं फिर भी एक बात उनसे स्पष्ट हो जाती है कि जैन इतिहास के इस विशेष समय में कोई ऐसी विचित्र या साधारण घटना घटित हुई होगी कि जो इन सब साहित्यिक दन्तकथाओं के लिए कारणभूत कही जा सकती हैं। फिर भी हम ऐसा नहीं कह सकते हैं कि दोनों सम्प्रदायों का मतभेद यहीं से वस्तुतः है क्योंकि मथुरा के शिलालेखों में हमें कितने ही ऐसे तथ्य मिलते हैं कि जो यह प्रकट करते हैं कि दोनों सम्प्रदायों में उस समय भी अनेक वस्तुएं एक थी जो कि परवर्ती काल में दोनों में चर्चा का विषय हो गई। : वस्तुस्थिति को और भी स्पष्ट करने के लिए हम ऐसा भी कह सकते हैं कि जो मुख्य तथ्य दोनों सम्प्रदायों में मतभेद के विषय हैं ये हैं महावीर के गर्भ का अपहरण, स्त्रीमुक्ति और केवलीमुक्ति जिनको दिगम्बर अमान्य करते हैं और श्वेताम्बर मान्य फिर जैनों का प्राचीन धागम साहित्य नाम हो गया वह भी दिगम्बर कहते हैं ।" कितने ही विधिविधानों और सामान्य बातों को छोड़ दें तो ये ही मुख्य तथ्य दोनों सम्प्रदायों के मतभेद के हैं ।! 1 मथुरा की शिल्पकला का विचार करते हुए पता लगता है कि महावीर के गर्भापहार के शिल्प में महावीर को नग्न दिखाया गया है । शिल्प में नेमेस के वाम घुटने के पास एक छोटे ग्राकार का साधू खड़ा दिखाया है वह महावीर ही है । शिल्पशास्त्री ने उस प्रसंग को प्रदर्शित करने के उद्देश से साधू के उपकरण भी दिखाए हैं। और महावीर के तब तक जन्म नहीं लेने एवम् प्रर्हत्पद प्राप्त नहीं करने के कारण ही उन्हें इतने लघु आकार में बताया गया है । " इस प्रकार मथुरा के एक ही शिल्प में दिगम्बरों की नग्नता की मान्यता और श्वेताम्बरों के गर्भापहार की मान्यता दोनों ही ग्रा जाती हैं। इससे यह देखा जा सकता है कि ई. सन् की पहली सदी तक तो दोनों सम्प्रदायों का पंच-भेय निश्चय ही उत्पन्न नहीं हुआ था। फिर भी यह स्मरण रखना चाहिए कि जैनमूर्ति शास्त्र प्रारम्भ में जैन तीर्थ करों को नग्न ही बनाना है और अधिक नहीं तो कम से कम सन् की दूसरी सदी तक तो ऐसा ही मनमोहन चक्रवती उदयगिरी और डर 1. इससे ऐसा लगता है कि जैनसंघ का दिगम्बर और श्वेताम्बर में विभाजन, जैनधर्म के प्रारम्भ में ही पाया जाता है । इसका एक मात्र कारण महावीर और गोशाल, दो सहयोगी नेताओं का पारस्परिक विरोध है जो कि दो विरोधी सम्प्रदायों का नेतृत्व करते थे। हरनोली वही, पृ. 268 E 2. निर्वाणकलिका की प्रस्तावना में श्री झवेरी लिखते हैं कि 'इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से ऐसा मालूम देना है कि विक्रम की पहली शती में दिगम्बर और श्वेताम्बर नाम से दो सम्प्रदाय जैनसंघ में अस्तित्व में थे । सिद्धसेन दिवाकर की स्तुतियों की प्रशस्ति से भी प्राचीनकाल में ऐसे सम्प्रदायों के अस्तित्व का समर्थन होता है ।' प्रस्तावना पृ. 7। 3. तेरा कियं मरणमेवं इत्थीयां प्रत्थि तन्मने मोक्खो । केवलराणीण पुणो ग्रहक्खाणं तहा रोश्रो ॥ अंबरसह विजई सिज्झइ वीरस्स गव्मचारतं । प्रेमी, वही, गाथा 13-14, पृ. 81 4. उसके (नेमेस के) वाम घुटने के पास एक छोटा नग्न पुरुष खड़ा है जिसके बाएं हाथ में साधु की भांति वस्त्र है और दायां हाथ ऊंचा उठा हुआ है।' व्हूलर, एपी. इण्डि., पुस्त. 2, पृ. 316 5. वही, पृ. 317 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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