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के स्मारकों के विषय में लिखते हुए कहते हैं कि 'मात्र तीर्थ कर ही नग्नावस्था में देखे जाते हैं। किसी किसी स्थान में वे भी वस्त्र पहने दिखाए जाते हैं जहां कि उनके मानवी जीवन के दृश्य या प्रसंग बताए गए हैं, स्त्रियों, राजारों देवों, अर्हतों, गंधवों और परिचारकों को बहुधा वस्त्र सहित बताया गया है। मथुरा शिल्प में नर्तकियां, अश्वासुर और कुछ तापस दिगम्बर याने नग्न बताए गए हैं। कभी-कभी स्त्रियां भी नग्न बताई गई हैं, परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर उनमें वस्त्र की सूक्षम रेखाएं दिखलाई पड़ती हैं कि जिसमें से शरीर की मरोड़ पारपार दीव पाती है।' परवर्ती इतिहास में वराहमिहिर ने अपने वृहत्संहिता ग्रन्थ में जैन तीर्थंकरों का वर्णन इन शब्दों में किया है- "जनों के देव नग्न, युवान, स्वरूपवान, शांत मुख मुद्रा वाले और घुटनों तक लम्बे हाथों वाले चित्रित किए जाते हैं।
इस प्रकार ईसवी सन् के प्रारम्भ तक जैनसंघ में दो पृथक सम्प्रदाय जैभा कुछ भी यद्यपि नहीं देखा जाता है, फिर भी इतना तो स्वीकार करना ही होगा कि महान दुष्काल के समय की भद्रबाहु की और ईसवी सन् 50 की जिनचन्द्र और शिवभूति की कथाएं उस महान पंथभेद के इतिहास की सुस्पष्टय वस्थाएं हैं, जिसने कि, लेखक के मतानुसार, ईसवी पूर्व 250 में महावीर निर्वाण मानते हुए देवर्धिगणि क्षमाश्रमण की प्रमुखता में ईसवी 5वीं सदी में जब दूसरी परिषद मिली तब दो स्पष्ट सम्प्रदायों में अन्तिम रूप से पृथक-पृथक कर दिया था। परन्तु ऐसा भी हो सकता है कि ऐसे स्पष्ट सम्प्रदाय इस समय से कुछ पूर्व ही हो गए हों और समग्र जैन सिद्धान्त के अन्तिम स्थिरिकरण एवम् उम रूप में लेखन ने, कुछ सिद्धान्तों और कूछ विश्वासों की विभिन्नता के साथ इन्हें जैनसंघ के समक्ष दो स्पष्ट विभागों में अन्ततः प्रस्तुत कर दिया हो। इसे ऐसे युग का जब कि सब बातें लिख-लिखाकर संहिताबद्ध की जा रही थी स्वाभाविक समनुपात भी निरापदे कहा जा सकता है।
पश्चिम भारत की गुफाओं के अध्ययन के आधार पर श्री जेम्स बर्ड यही समय इस महान् सम्प्रदाय भेद का स्वीकार करता है और इस निर्णय पर पहुंचता है कि "दिगम्बर जैनों की उत्पत्ति ई. सन् 436 के आसपास होना इन गुफाओं की तिथि से भी मेल खा जाता है। काठियावाड़ में स्थित पालीतारणा के जैन मन्दिरों की कथा "शत्रुजयमाहात्म्य भी दिगम्बरों की उत्पत्ति का समय यही निश्चित करती है ।
इस पंथभेद के इतिहास का उपसंहार, संक्षेप में, सर चार्ल्स ईलियट के शब्दों में इस प्रकार किया जाता है कि "संभवतया दिगम्बर और श्वेताम्बर भेद जैनधर्म की शैशवावस्था से ही चले पाते हों और श्वेताम्बर ही वह प्राचीन सम्प्रदाय हो जिसको महावीर ने संस्कारित अथवा गरुतर किया हो। हमें यह कहा गया है कि "वर्धमान के नियम वस्त्र का निषेध करते हैं, परन्तु पुरसादानी मार्श्व के नियम एक अधो और एक उपरि इस प्रकार दो वस्त्रों की आज्ञा देते हैं परन्तु यह पंथ भेद बहत वर्षों बाद निश्चित रूप में उस समय प्रकट हो ही गया कि जब दोनों के शास्त्रों का पृथक-पृथक निर्माण हुा ।"
1. मनमोहन चक्रवर्ती, नोट्स प्रान दी रिमेन्स प्रान धौली एण्ड इन दी केन्ज आफ उदयगिरि एण्ड खंडगिरि, 2. वृहत्संहिता, अध्या. 59, राएसो पत्रिका, नयी माला सं. 4 पृ. 328 में कर्न का अनुवाद । देखो (पृ. ।। चक्रवर्ती, मनमोहन, वही और वही स्थान। 3. देखो प्रेमी, वही, पृ. 3।। 4. यह निश्चित लगता है कि ई. सन् 454 में सब शास्त्र लिख लिये गए थे और उनकी प्रतियां भी अनेक इमलिए कराई गई कि कोई भी प्रमुख उपाश्रय उनके बिना नहीं रह जाए। -"श्रीमती स्टीवन्सन, वहीं, प. 15। 5. बर्ड, हिस्टोरिकल रिसर्चेज, पु. 72 । 6. ईलियट, वही, पृ. 112 ।
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