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________________ 63 1 जैनसंघ के इस पंथभेद का पूर्व इतिहास इतना अधिक गुफित होते हए भी यह कहा जा सकता है कि दोनों मम्प्रदायों में वास्तविक भेद बहुत ही अल्प है। कितने ही सिद्धान्तिक और विधिविधान की बातों में दोनों में मतभेद बड़ा अवश्य है फिर भी अनेक विरोधात्मक तथ्य अनावश्यक और परोक्ष हैं । आधुनिक युग के अत्यन्त सम्मान्य और अत्यन्त धर्मिष्ठ श्री रायचन्द्रजी के विचार बहुत कुछ ऐसे ही हैं। वे एक महान् तत्वज्ञ और आध्यात्मिक व्यक्ति थे और उनके विचार प्राज भी अनेक व्यक्तियों को स्वीकार्य हैं। - "दिगम्बरों ने, "डॉ. दासगुप्ता कहता है कि, श्वेताम्बरों से बहुत प्राचीन काल में ही पृथक होकर अपने. विशेप धार्मिक क्रिया काण्ड रच लिये और अपना पथक धार्मिक और साहित्यक इतिहास भी बना लिया हालांकि प्रमुख सिद्धान्त के विषय में दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं दीखता है ।" तात्विक दृष्टि से दोनों सम्प्रदाएं इस प्रकार परस्पर विशेष भिन्न नहीं है । जो भी अन्तर उनमें हैं वह सब व्यापारिक बातों का हैं और विल्सन ठीक ही कहता है कि “उनका पारस्परिक विद्वष जमा कि सामान्यतः होता है, उसकी उत्पत्ति के मूल की अपेक्षा तीव्रता में प्रति ही असन्तुलित है।"3 जैनसंघ के इस दुसरे पंथभेद को यही समाप्त कर अब हम श्वेताम्बर जैनों के प्रमूर्ति पूजक भेद का भी विचार कर लें जिन्हें आज कल दिया अथवा स्थानकवासी कहा जाता है। जैनधर्म के इतिहास में यह पंथभेद बहुत ही पीछे से हमा और यह कहने में भी कुछ आपत्ति नहीं है कि भारतवर्ष के धार्मिक मानस पर मुसलमा की सीधा प्रभाव ही वह कहा जा सकता है। श्रीमती स्टीवन्सन कहती हैं कि "मुसलमान विजय का एक अोर तो यह प्रभाव हुआ कि मूर्तिमंजकों के विरोध में अनेक जैन अपने मूर्तिपूजक जैन साथियों के अत्यन्त निकट प्रा गए तो दूसरी ओर यह भी हुआ कि उसने कुछ को मूर्तिपूजा से बिलकुल चलित भी कर दिया। कोई भी पोर्वात्य अपने पौर्वीय बन्धु द्वारा मूर्तिपूजा विरोधी प्रचार का चीत्कार इसको औचित्य का मन में संदेह जगाए बिना सुन ही नहीं सकता है। यह स्वाभाविक ही था कि गुजरात के प्रमुख नगर अहमदाबाद में जो कि उस समय मुसलमानी प्रभाव में अत्याधिक था, ही इस शंका के पहले पहल चिन्ह हमें दिखलाई दिए । लगभग ई. 1452 में प्रमूर्तिपूजक प्रथम जैन सम्प्रदाय याने लौका सम्प्रदाय का उद्भव हुग्रा और ई. 1653 में फिर दिया या स्थानकवासी सम्प्रदाय अस्तित्व में आया । यह एक आश्चर्य की ही बात है कि भारत की यह प्रवृत्ति योरप की ल्यूथर और पवित्रपंथी ईसाई सम्प्रदायों की ही समकालिक है।"4 - जैनसंघ के इस सम्प्रदाय के विषय में अधिक कहने की यहां अावश्यकता नहीं है क्योंकि यह हमारे निर्दिष्ट काल से बहुत ही बाद का है। परन्तु जैनसंघ में आज पाए जाने वाले भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के विषय में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि दिगम्बर सम्प्रदाय चार उपसम्प्रदायों में आज विभक्त है और श्वेताम्बर मूर्तिपूजक 84 गच्छों में एबम् स्थानकवासी 11 टोलों में। ईसवी दसवीं सदी के पूर्व इनमें से किसी भी विभाग का जन्म 1. विवादसबंन्धीनि वहनि स्थलानि तु अप्रयोजनायमानान्येव तयोः । -रायचन्दजी, भगवतीसूत्र, जिनागम प्रकाश सभा, प्रस्तावना, पृ. 6 । 2. दासगुप्ता, वही, भाग 1, पृ. 170 । 3. विल्सन, वही, भाग 1, पृ. 340 4. श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 19 । 5. दिगम्बरः पुनर्यान्यलिंगा: पाणिपात्राश्च । ते चतुर्धा, काष्ठासंध ___-मूलसंघ-माथुरसंघ-गोप्यसंघमेदात-प्रेमी, वही, पृ. 44 । 6. देखो श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 13 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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