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________________ [ 69 नहीं हुआ था और स्थानकवासी जैनों को छोड़कर अनेक भेद तो आज लोप भी हो गए हैं। यदि आज भी कुछ अस्तित्व में होंगे तो उनमें श्वेताम्बर दिगम्बर विरोध जैसा परस्पर स्पष्ट तिरस्कार या कटुता कदाचित होगी। 每 यहां यह कह देना भी आवश्यक है कि महावीर के समय से कहो या उसके पहले से ही मतभेद का यह स्वर या पागलपन जैनधर्म की यह विशेषता ही प्रतीत होती है। भारतवर्ष के अन्य धर्मों में ऐसा पागलपन है या नहीं कुछ भी नहीं कह सकता हूँ परन्तु इतना तो स्पष्ट ही मालूम होता है कि उनमें मनभेद जैनों की जितनी सीमा तक कभी नहीं पहुंचा होगा। 2000 वर्ष से अधिक के इस अन्तर काल में जनसंघ के जीवन में जो मत भेद उत्पन्न हुए वे अधिकांश निम्न कारणों से ही उद्भूत हुए लगते हैं। इनमें से कितने ही तो महावीर के कथन की गैरसमझ या विसंवाद से हुए हैं। दूसरे इस कारण से कि जैनधर्म ग्रहण करनेवाले जिम देश और जाति में उत्पन्न हुए थे वे इनकी विशिष्ट परिस्थितियों और सयांगों को नहीं छोड़ पाए थे, धौर तीसरे इससे कि जैन साधुयों के मुखी या खास खास माचायों की मान्यता पृथक पृथक होती जा रही थी एवम् जैन माधुसंघों का पारस्परिक मन भेद के कारण बढ गया था । 2 में खड़ा है यही 'जैनधर्म ग्राज पर्यन्त जीवित धर्म रूप भारतवर्ष से अदृश्य ही हो गया है ।" इन सब मतभेदों और सम्प्रदायों के होते हुए भी, एक विलक्षण बात है. जब कि बौद्धधर्म अपनी जन्मभूमि सरसरी दृष्टि से देखने पर यह एक विचित्र सा ही भासता है. किन्तु श्री ईलियट कहता है कि 'इसकी शक्ति और जीवित रहना उसके गृहस्थ धनुयायों की प्रीति सम्पादन करने और उन्हें एक रूप में संगठित करने की शक्ति के केन्द्रित है। पक्षान्तर में बौद्धों में भिक्षुसंघ ही वस्तुतः बौद्धधर्म माना जाने लगा था और जन समुदाय (जैसा की चीन और जापान में वस्तुतः हुआ हैं वैसे ही ) अन्य धार्मिक संस् के समान इस भिक्षुसंघ को अपने से बाहर की वस्तु मान भिक्षुओं को पूज्य पुरुषों की भांति पूजने लग गया था। मठों और विहारों में गन्दगी फैलने लगी या उनका नाश किया गया तो जिवित बौद्धधर्म जैसा कुछ भी शेष नहीं रहा । परन्तु जैनों के परिभ्रमण करने वाले साधुत्रों ने धर्म की सारी सत्ता अपने में इतनी केन्द्रित नहीं की थी और उनके अनुशासन की कठोरता से उनकी संख्या भी रुदा ही परिमित रही थी । गृहस्थ धनवान थे और एक संघ बना कर रहते थे और अत्याचार उन्हें सदा उत्साहवर्धक रहता था । परिणाम यह हुआ कि जैन जाति यहूदियों, पारसियों, क्वेकरों आदि T फिर जब बौद्धधर्म 1. इन सब के उदाहरण स्वरूप हम पहला सात निन्हवों और दिगम्बर श्वेताम्बर भेद को स्थान देंगे जिनका कि विचार हम कर ही चुके हैं। दूसरा उदाहरण हम प्रोसवाल, श्रीमाल का भेद का देंगे जिसमें कि श्रीमाल, श्रीमाल या भिल्लमाल (आधुनिक भीमल, मारवाड़ के धुर दक्षिण का) गांव के नाम से पाते हैं ।' (एपी. इण्डि., पुस्त. 2, पृ. 41), और तीसरा उदाहरण हैं श्वेताम्बरो के 84 गच्छ भेद जिनमें से उपा खरतर और अंचल गच्छ ही विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनमें से खरतरगच्छ जिन परिस्थितियों में उद्भव हुआ वे इस प्रकार कही जाती है जिनदत्त एक अभिमानी व्यक्ति थे। उनका यह अभिमान उनके दिए तुटक उत्तरों में स्पष्ट दीखता है जिनका कि सुमतिगरि ने उल्लेख किया है। इसीलिए वह वरतर कहलाने लगे थे व्यंग को सम्मानसूचक समझ खुशी से स्वीकार कर लिया हीरालाल हंसराज, वही भाग 2, 2. ईलियट वही, पृ. 122 1 परन्तु उनने इस पं. 19-20 3. डा. हरनोनी निःसंदेह यह ठीक ही कहते हैं कि जैन श्रावकों यह उत्तम संगठन जैनसंघ के बड़े महत्व का रहा होगा, यही नहीं अपितु भारतवर्ष में जैनधर्म के अपनी स्थिति बनाए कारण मी रहा होगा जब कि इसको अत्यन्त प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी बौद्धधमं ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया बिलकुल झाड़पुंछ ही गया था। शापेंटियर केहि मा. 1. पृ. 168 169 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only समस्त जीवन में रखने का प्रधान द्वारा देश से www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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