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________________ 701 जातियों की ही भांति हो गई कि जिनमें गृहस्थों का श्रीमंतपन, थोड़ा या बहत क्रियाकाण्डपन और अत्याचारसहनशीलता आदि समान लक्षरण हैं।'' दूसरे विद्वानों की भी ऐसी ही मान्यता है । परन्तु जब हम जैनधर्म को टिकाए रखने वाली सब परिस्थितियों का विचार करते हैं तो अनेक अन्य कारणों की उपेक्षा भी हम नहीं कर सकते हैं। यदि साधारण समुदाय के लिए जैनधर्म मुक्त करने से यह टिक मका हो तो साथ ही हमें यह भी कहना होगा कि बौद्धधर्म की अपेक्षा संकुचित प्रचार कार्य और पूजा के मुख्य केन्द्रों के लिए चुने गए एकांत स्थान भी इस स्थायित्व के कारण हैं। इससे मुसलमान अत्याचारों और ब्राह्मणों के पुनरुत्थान के दबाब में भी जैनधर्म सही सलामत टिका रह सका था जब कि बौद्ध धर्म हिन्दूधर्म के दबाव के नीचे भारतवर्ष में बिलकूल ही दब गया था। "जैनों को नास्तिक मानते हुए भी ब्राह्मणों ने उनके प्रति दिखाई सहिष्णुता से उस समय अनेक बोद्धों ने जैनसम्प्रदाय में पाश्रय ले लिया ।" इस प्रकार जहां तक मुसलमानों की सत्ता ने "राष्ट्र की धार्मिक, राजसिक, और सामाजिक सत्ता को तोड़ नहीं दिया और छोटी-छोटी जातियों, समाजों तथा धर्मों के लिए सर्वत्र अनुदारता दिखाई वहां तक जैनों ने अपनी हस्ति टिकाए ही रखी थी। डॉ. शार्पटियर और डॉ. यकोबी के अनुसार भारत में बहत से सम्प्रदाय नष्ट हो गए थे तब जैनधर्म के टिके रहने का कारण महावीर के समय से चले पाते सिद्धान्तों से दृढ़ता के साथ चिपके रहने की उत्कट लग्न या 1. ईलियट, वही, पृ. 122 । बौद्धों में भी उपासकों और भिक्षुत्रों का संगठन ऐसा ही था, परन्तु जैसा कि स्मिथ कहता है, उपासकों के संघ की अपेक्षा उनने अधिकांशतया उपसम्पदा प्राप्त भिक्षु-संघ पर भरोसा किया था। देखो स्मिथ, पाक्सफर्ड हिस्ट्री आफ इण्डिया, १.52 । जैनों में दोनों पक्षों के सम्बन्धी अधिक संतुलित थे और इसलिए उनका सामाजिक संतुलन स्थिर था । देखो श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 67; मैकडोन्येल, इण्डियाज पास्ट, पृ. 70। 2. डॉ. हरनोली का इस विषय पर बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी में 1898 में दिए म भापति-पद के भाषण में विवेचन अद्वितीय रूप से प्रकाशवान था क्योंकि उसमें जैनों के संगठन में श्रावकों को प्रारम्भ से ही उपादान मूलक भाग का स्थान प्राप्त, इस बात पर उनने पूरा-पूरा बल दिया है । बौद्धसंघ में, पक्षान्तर में, उपासकवर्ग को कोई भी प्रौपचारिक मान्यता नहीं थी। इस प्रकार "जैन साधारण के सांसारिक जीवन में विस्तृत स्तर के साथ सम्बन्ध के अभाव में बौद्धधर्म बारहवीं और तेरहवीं सदी में हुए उनके भिक्षु-बिहारों पर के मुसलमानों के घोर अाक्रमणों के सामने टिके रहने में अशक्त ही नहीं रहा, अपितु देश की भूमि से लोप ही हो गया ।" श्रीमती स्टीवन्सन, वही. प्रस्ता. प. 12 । देखो शाटियर, वही, भाग 1, पृ. 168-169; हरनोली, बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, विवरण-पत्रिका, 1898, पृ. 53 । 3. "...बौद्धों की अपेक्षा न्यून साहसी परन्तु अधिक परिचितनशील होने और उसकी भी प्रारम्भिक अवस्था की सी मक्रिय प्रचारवृत्ति नहीं रख कर जैनधर्म ने अपेक्षाकृत तंग परिसीमों में शांत जीवन बिताने में सन्तुष्ठ रहा और इसीलिए आज भी पश्चिमी और दक्षिणी भारत न केवल सम्पन्न मुनि सस्था ही उसकी दीख रही है अपितु श्रावक भी संख्या में कम होते हुए भी प्रभावशाली धनी हैं । श्रीमती स्टीवन्सन, वही, प्रस्तावना पृ.12 । 'अप्रतिरोधक शिखर पर नहीं पहुंच कर. परन्तु साथ ही प्रतिस्पर्धी बौद्ध धर्म की भांति अपनी जन्मभूमि मे से सम्पूर्णतया विलोप भी नहीं हया है । शाटियर. वही, पृ. 169-170 । 4. देखो कुक, एंरिए, भाग 2, पृ. 496। 5. टीले. वही, पृ. 141। 6. बार्थ, वही, पृ. 152 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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