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तत्परता ही मालूम होती है। “छोटी सी जनजाति की अपने मूल सिद्धान्तों और संस्थानों को चिपके रहने की ग्राग्रहपूर्ण अनुदारता ही बहुत करके घोर अत्याचारों के सामने उसे टिकाए रखने का मुख्य कारण है क्योंकि बहुत समय पूर्व, जैसा कि डॉ. याकोबी कहता है, याने ई. पूर्व लगभग 300 में भद्रबाहु के समय में प्रथम पंथभेद हुआ तब से ही जैनधर्म के मुख्य सिद्धान्त बहुत कुछ अपवर्तित ही रहे हैं । इसके सिवा यद्यपि साधुग्रों और गृहस्थों के लिए कितने ही सामान्य अनुशासन नियम जो कि शास्त्र में देखने में पाते हैं, अनुपयोगी और विस्मृत हो गए हों फिर भी ऐना निशंक कहा जा सकता है कि दो हजार वर्ष पूर्व जो धार्मिक जीवन था लगभग वहीं ग्राज भी वैसा ही दीख पड़ता है । यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि फेरफारों का एकदम अस्वीकार ही जैनधर्म के सुदृढ़ अस्तित्व का कारण हो गया है।"।
वह अनुदार स्वभाव जैन समाज के लिए जैसी कि आज भी उसकी स्थिति है, लाभदायक है या नहीं, यह भारी शंकास्पद बात है । अाज के समकालिक धर्मों के अध्येता को वह विपरीत ही लगता होगा । स्थिति स्थापकता में असहिष्णुता, अस्थिरता और धार्मिक दंभ के चिन्ह ही उसे दीख पड़ेंगे । उत्सर्ग-लेखों और अन्य प्रमारणों से सर चार्ल्स ईलियट कहता है कि "इन उल्लेखों से हम जानते हैं कि जैन जाति बहुत से उपविभागों पौर सम्प्रदायों की बनी है. पर इससे हमें यह विचार कर लेना नहीं चाहिए कि भिन्न-भिन्न गुरू एक दूसरे के प्रति वैमस्य रखते थे । परन्तु उनका अस्तित्व यह प्रमाणित करता है कि उनकी प्रवृत्ति और व्याख्या की स्वतन्त्रता ही ग्राज के अनेक उपसम्प्रदायों का कारण होंगी।"
परन्तु एक बात बिलकुल स्पष्ट है और वह यह कि मारी जैन समाज के मामान्य हित का विचार किए बिना ये सब भिन्न भिन्न गुरू अपनी ही हांकते रहे थे ।
कर्नल टाड कहता है कि 'तपागच्छ और खरतरगच्छ ने प्राचीन कितनी ही पुस्तकों को नाश करके मुसलमानों से भी अधिक हानि पहुंचाई है।' यही बात जैनों के श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों के विषय में भी कही जा सकती है । भूत काल में ही नहीं अपितु अाज भी इनकी एक दूसरे के प्रति प्रवृत्तियां महावीर के अनुयायी को शोभा दे ऐसी नहीं हैं । स्थिति यह है कि कोई भी जाति के प्रति गैरसमझ उत्पन्न किए बिना यह अवश्य ही कहा जा सकता है कि इस प्रकार का विरोधी वातावरण और पारस्परिक विवाद जैन समाज में कुछ अधिक काल तक चलता रहेगा तो एक समय ऐसा पा जाएगा कि जब जन जाति अपने बन्धु बौद्धधर्म की भांति इस देश से नाश हो जाएगी।
1. शार्पटियर, वही, पृ. 169 । देखो याकोबी, जेडडीएमजी, संख्या 38, पृ. 17 अादि । 2. ईलियट, वही, पृ. ।।3। 3. टाड, ट्रेवल्स इन व्यस्टर्न इण्डिया, पृ. 284 । कर्नल टाड की यह बात मानी जा सके ऐमी नहीं है क्योंकि
इसके लिए न तो उतने ही कोई प्रमाण दिया है और न ऐसा प्रमाण कहीं कोई उपलब्ध ही है।
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