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________________ तीसरा अध्याय राजवंशों मे जैनधर्म ई. पूर्व 800--200 पिछले अध्याय में हमने जैनधर्म के विषय में विचार किया था। पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक पुरुप थे श्रीर महावीर का अपने समय के कितने ही प्रमुख राज-कुटुम्बों के साथ रक्त-सम्बन्ध था, ये दोनों ही बात अत्यन्त महत्व की हैं क्योंकि हमें अब यह देखना है कि किन संयोगों में 'जनधर्म अमुक राज्यों का राज्यधर्म वना कितने राजानों ने उसे अपनाया या उसे उत्तेजन दिया एवम् अपनी प्रजा को भी अपने ही माय जैनधर्मी बना दिया।। हमारा यह प्रयत्न सिवा इ वे और कुछ भी नहीं है कि हम उत्तर-भारत के जैनों का इतिहास को देश के उस विमाग का सब वैध ऐतिहासिक पृष्ठभूमि सहित प्रारोप करें। या यों कहिए कि इस अध्याय का ना उस काल के राजवंशों का उत्तर-भारत के जैनों के साथ क्या सम्बन्ध रहा था उसका तादृश चित्र खींचना है। पहले पार्श्वनाथ के समय का विचार करते हुए हम देखते हैं कि ऐसा एक भी उपयोगी साधन उपलब्ध नहीं है कि जिस पर हम कुछ भरोसा कर सकते हैं। 'उनके नाम के साथ यद्यपि साहित्य का बहुत अधिक भाग संबद्ध है, फिर भी पार्श्वनाथ के जीवन और धर्मकथन सम्बन्धी हमारी जानकारी बहुत ही परिमित है। जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं, उस सब साहित्य में ऐतिहासिक वस्तु यदि कुछ है तो बस इतनी ही कि वे ईठाकु वंश के वाराणसी के राजा अश्वसेन के पुत्र थे और बंगाल (माजकल बिहार) में स्थित समेत शिखर पहाड़ी पर निर्वाग पाप्त हुए थे। उनका सांसारिक सम्बन्ध राजा प्रसेनजित के राजकुल के साथ हुआ था जिसका पिता पृथ्वीपति रवमन था और जो कुशस्थल में राज्य करता था एवम् जीवन के अन्तिम दिनों में जैन साधु बन गया था। पभावती नामक उसकी पुत्री के साथ पार्श्वनाथ का विवाह हुअा था।' 1. स्मिथ, वही, पृ. 55 1 2. शापेंटियर, वही, पृ. 154 । 3. ...अनुगंगं नगर्यस्ति वाराणस्यभिधानतः ।। तस्यामिद्वाकुवंशो भूदश्वसेनो महीपतिः ।। हेमचन्द्र, त्रिपष्ठि-इलाका, पर्व 9, श्लो. 8, 14, पृ. 195। 4. पुरं कुशस्थलं नाम...। तित्रासीनरवर्मेति...... पृथिवीपतिः ।। जैनधर्मरतो नित्यं...। उपादत्त परिव्रज्या सुसाधुगुरुसन्निधौ ।।...राज्य भून्न रवर्मणः। सूनुः प्रसेनजिन्नाम...।। तस्य प्रभावती नाम । ...कन्यका ।।... पावो.......उदुवाह प्रभावतीम् ।। हेमचन्द्र, वही, पर्व 9, श्लो. 58,59,61. 62, 68, 69, 210.प. 198, 2031 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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