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________________ 64 ] इसके विपरीत में एक अन्य दन्तकथा यह कहती है कि स्थूलभद्र का ही दिगम्बरों के नग्नतत्व के प्रति घोर विरोध था और उसके पश्चात् उसके शिष्य महागिरि ने 'नग्नता के प्रादर्श को पुनरुज्जीवित किया। वह मच्चा साधू था और यह मानता था कि स्थूलभद्र के शासन में धर्म में बहुत शिथिलता प्रवेश कर गई थी। उनके इस प्रचार कार्य का सुहस्ति ने विरोध किया। यह मुहस्ति महागिरि के नीचे अनेक जैनसंघ नेताओं में से एक था। पक्षान्तर में श्वेताम्बर मान्यतानुसार इस पंथभेद का मूल नीचे लिखी बातों में दीखता है । रहवीर गांव में शिवभूति अथवा सहसमल्ल नाम का एक व्यक्ति रहता था । एक समय उसकी माता उससे अप्रसन्न हो गई इससे वह घर छोड़ कर चला गया और जैन साधू बन गया। साधू की दीक्षा लेने के बाद राजा ने उसे एक मूल्यवान कम्बल भेंट किया और वह उससे अभिमानी हो गया। उसके गुरू ने इसकी अोर उसका ध्यान दिलाया तो वह तब से ही नग्न रहने लगा। और उसने फिर दिगम्बर सम्प्रदाय चला दिया। उसकी बहन उत्तरा ने भी अपने भाई का अनुकरण करने का प्रयत्न किया । परन्तु स्त्रियां नग्न रहें यह उचित नहीं लगने से शिवभूति ने उससे कह दिया कि 'स्त्री मुक्ति की अधिकारिगी नहीं होती है। इस पंथ भेद की तिथि श्वेताम्बर महावीर के पश्चात् 609 वर्ष कहते हैं। महावीर निर्वाण और विक्रम के बीच 470 वर्ष के अन्तर के अनुसार यह घटना वि. सं. 139 में पड़ती है। इस प्रकार तिथि के विषय में दोनों ही प्रायः सम्मत हैं क्योंकि दिगम्बर विक्रम पश्चात 136 वर्ष में और श्वेताम्बर वि, सं. 139 में पंथभेद हग्रा कहते हैं । समय के विषय में इस प्रकार ऐक्य होते हुए भी कारणों के विषय में दोनों में तनिक भी ऐक्य नहीं है। जिनचन्द्र और शिवभूति ऐतिहासिक की अपेक्षा काल्पनिक व्यक्ति ही लगते हैं क्योंकि दोनों सम्प्रदायों की पट्टावलियों में ऐसे किसी व्यक्ति का नाम नहीं हैं । इसी से दिगम्बर विद्वान श्री नाथूराम प्रेमी कहते हैं कि इस पर से हम यह अनुमान कर कते हैं कि दोनों में से कोई भी सम्प्रदाय भेद की उत्पत्ति नहीं जानता है। कुछ न कुछ लिखना या कहना चाहिए इस दृष्टि से बाद में जो जिसके मस्तिष्क में पाया उसने वैसा ही लिख दिया है । कुछ कटु होते हुए भी कहना होगा कि दोनों सम्प्रदाय महावीर के समय जम्बू तक जो कि महावीर के निर्वागा के पश्चात् 64 वें वर्ष याने ई. पूर्व 403 में निर्वाण हए थे, के गुरुनों की वंशावली स्वीकार करते हैं ।" जम्बू के पश्चात् दोनों पक्ष अपने गुरुपों की भिन्न-भिन्न वंशावलियों देते हैं। परन्तु चन्द्रगुप्त के समय में हुए भद्रबाहु को दोनों ही स्वीकार करते हैं।' सत्य तो यह है कि इन सब परस्पर विरोधी दन्तकथानों में से सत्य बात का पता लग नहीं सकता है और इ-लिए जैन समाज के इस महान् सम्प्रदाय-भेद की निश्चित तिथि बताना एक दम ही कठिन है। 1. श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 73 । 2. वही, . 74 । 'मेरे विचार से ये भेद प्रार्य महागिरि और पार्यसुहस्ति के समय से स्पष्ट रूप से व्यक्त हुए हैं।' झवेरी, निर्वाणकलिका, प्रस्तावना. पृ. 7। 3. उपाध्याय धर्म मागर की प्रवचनपरीक्षा में यह कथा दी गई है । देखो हीरालाल हंसराज, वही, भाग 2, पृ. 15 । बोडियसिवइउत्तराहि इमंय ।...रहवीरपुरे समुप्पणं । आवश्यकसूत्र, पृ. 324 । 4. छवाससयाई नवुत्तराई तभया सिद्धि गयस्स वीरस्स । तो कोडियारण दिट्टी रहवीरपुरे समुप्पण्णा ॥ वही, पृ. 328 | "दिगम्बरों की उत्पत्ति शिवभूति से कही जाती है (ई. सन् 83) श्वेताम्बरों द्वारा और उसका कारण प्राचीन श्वेताम्बरों में भेद पड़ जाना कारण बताया जाता है।'...दास गुप्ता, वही, भाग 1, पृ. 17 1 5. प्रेम, वही, पृ. 30 । 6. देखो श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ 69 ! 7. देखो प्रेमी वही और वही स्थान। .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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