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भीषिका से से एक दूसरे को देखते रहे हैं । ' महावीर के धर्म के मूल अनुयायी कहलाने के उत्साह में दोनों में से एक भी अपनी उत्पत्ति के विषय में कुछ नहीं कहता है, परन्तु दोनों ही प्रतिस्पर्धी सम्प्रदाय की उत्पत्ति और कतिपय मान्यताओं की व्यंगपूर्ण और कभी-कभी अपमानजनक ठीका करते हैं।
पहले दिगम्बर दन्तकथाओं का ही विचार करें। उनके अनुसार हम देखते हैं कि दिगम्बर स्वयम् जैनसंघ में हुए इस सम्प्रदाय भेद के विषय में एक मत नहीं हैं। धाचार्य देवसेन अपने ग्रन्थ 'दर्शनवार' में कहते हैं कि ''श्वेताम्बर संघ का प्रारम्भ विक्रम राजा की मृत्यु के पश्चात् 136 वर्ष में सौराष्ट्र के वल्लभीपुर में हुआ था ।' इस विद्वान आचार्य के अनुसार श्वेताम्बरों की उत्पत्ति का कारण पूण्य "भद्रवाह" के शिष्य प्राचार्य शांतिसूर के शिव्य जिनचन्द्रा दुष्ट पौर व्यभिचारी जीवन था । "
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किस भद्रबाहु का यहां उल्लेख किया गया है यह स्पष्ट नहीं है यदि वह चन्द्रगुप्त मौर्य कालीन भद्रबाहु ही हैं तो मतभेद का उक्त समय ठीक नहीं हो सकता है । परन्तु दिगम्बर दन्तकथानुसार चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में पड़े महा दुष्काल के कारण भद्रबाहु और उनके शिष्यगण उत्तर से दक्षिण देश में चले गए थे और उसके परिणाम स्वरूप श्वेताम्बर और दिगम्बर दो सम्प्रदायों में जनसंघ के विभक्त हो जाने का अनुमान सत्य हो तो यह निर्विवाद हैं कि वह भद्रबाहु वही होना चाहिए ग्रम्य नहीं याने भद्रबाहु भुतकेवली ।
देवसेनसूरि ने यही बात 'भावसंग्रह' में भी कही है, परन्तु उसमें भद्रबाहु के जीवन से सम्बन्धित दुष्कान के विषय में भी वह कुछ कह देता हूँ वहां भी जिनचन्द्र को उसी पृथ्य रूप में चित्रित किया है पर अधिक में यह कहा गया है कि उत्सूत्र मार्ग पर चलने के लिए उपालम्भ दिए जाने पर उसने अपने गुरू शांतिसूरि का वध ही कर दिया था। ग्रभिभूत करने वाली बात तो यह है कि यहां भी इस सम्प्रदाय भेद की तिथि वही कही गई है । "
इस प्रकार दोनों दन्तकथानों में निर्दिष्ट भद्रबाहु के सम्बन्ध में स्पष्ट ही कुछ भ्रम या अपूर्णता है । हो सकता है कि इनमें किसी दूसरे भद्रबाहु का उल्लेख किया गया हो, अथवा ऐतिहासिक घटना के सम्बन्ध में कालक्रम का विचार किए बिना ही दन्तकथा बना दी गई हो। ये दोनों ही दन्तकथाएं निर्दोष हों इसलिए भट्टारक राजनंदी ने भद्रबाहुचरित में यह अधिक कह दिया है कि भद्रबाहु के समय में अर्धफालक (अर्ध-वस्त्र परिधान किए ) के नाम से मतभेद प्रारम्भ हुआ और स्थूलभद्र ने जब इस परिवर्तन करनेवाले का विरोध किया तो उसको मार डाला गया। इसके बहुत समय पश्चात् वल्लभीपुर में राजा की रानी उज्जाविनी के राजा की पुत्री चन्द्रलेखा के कारण अन्त में दो अलग सम्प्रदाय बन ही गए ।"
1. इस उम्पत्ती कहिया, सेवइयाणं च भग्गमद्वाणं प्रादिदेवसेनसूरि भावसंग्रह (सोनीसम्पादित), गाया 160,
पू. 39 देखो प्रेमी, दर्शनासार, पु. 57 मिच्छामि मो... यदि आवश्यक सूत्र पु. 324
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2. छत्तीने वरिवसए... सोर... उपरणो सेवडो संघो प्रेमी, दर्शनसार गाथा 11 पृ. 7
3. वही, गाथा 12-15 ।
4. सीसे सीसेगा दोहदंडेण । प्रेमी. वही, पृ. 561
गाथा 137, पृ. 351 देखो प्रेमी वही, पृ. 35
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6. प्रेमी, नही. पू. 60 दिगम्बरों के अनुसार 'भद्रबाहु महावीर के पश्चात् धावें धर के समय में अर्थ फालक नाम का एक शिथिलाचारी सम्प्रदाय हुआ जिनमे श्वेताम्बरों का वर्तमान सम्प्रदाय विकसित हुमा है।' दासगुप्ता, वही भाग पृ. 170
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थविरो धाएण मुझे... आदि । देवसेनसूरि, वही, गाथा 153, पृ. 38 | देखो 5. छत्तीस वरिससए... सोरट्टे उप्पण्णों सेवडसंघो...यादि । देवसेनसूरि, वही,
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