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________________ 62 ] शिल्पशास्त्र के प्रदेशों में इस जैन ग्राजीवक वैमनस्य पर लिखते हुए श्री मुखर्जी लिखते हैं कि "यहां की बराबर की गुफाओं के अन्तिम दो अशोक के शिलालेख और दशरथ के नागार्जुनी गुहाम्रों के तीन शिलालेख प्रजीवकों को उन गुफाओं के दिए जाने का उल्लेख करते हैं । परन्तु इनमें के तीन शिलालेखों में "आजीवकेहि " शब्द घिस देने का प्रयत्न किया गया दीखता है। ऐसा लगता है कि इस सम्प्रदाय का नाम किसी को सहन नहीं हुआ हो और उसी ने इसको मिटा देने का यह प्रयत्न किया हो। परन्तु यह कौन होगा ? डुल्ट्ज की धारला है कि वह मंखरि अवंतिवर्मन होना चाहिए जिसने कि बराबर गुफाओं में एक गुफा कृष्ण को और नागार्जुनी की दो गुफाएं शिव और पार्वती को अर्पित की हैं और उसका कट्टर हिन्दु-मानस ग्राजीवकों को सहन नहीं कर सका होगा। डॉ. बैनरजी शास्त्री ने इससे अधिक विचारशील बात कही है। वह खारवेल पर इस अपकृत्य का दोष मंढ़ता है कि जो कट्टर जैन था और ग्राजीवकों के प्रति जैनों का विरोध परम्परा प्रसिद्ध था । यह कार्य खरि के समय से बहुत पूर्व जब कि अशोक की ब्रह्मी लिपि भूली जा रहीं थी, तब ही हो जाना चाहिए। 2 इस प्रकार व्यवहारिक दृष्टि से प्राजीवक सम्प्रदाय भारतवर्ष में से ई. पूर्व दूसरी सदी के अन्त में नष्ट हो गया था. 2 यद्यपि बाद के साहित्य में अर्थात् वराहमिहिर शीलांक की सूत्रकृतांग टीका, हलायुद्ध की प्रमिधान रत्नमाला और विरंचिपुरम् निकटस्थ पोयगेई के पेरुमल मन्दिर की भीतों पर के शिलालेख प्रादि बाद के साहित्य में उनका उल्लेख अवश्य ही मिलता है । परन्तु इन उल्लेखों का आजीवकों से सीधा सम्बन्ध नहीं है और न वे प्रजीवकों सम्बन्धी ही हैं। अनेक स्थलों पर तो श्राजीवक शब्द जैनों के दिगम्बर सम्प्रदाय के लिए ही प्रयुक्त हुआ है।" जैनों के पहले पंथभेद के विषय में इतना कहने के पश्चात् अब हम जैनों के श्वेताम्बर दिगम्बर भेद का विचार करेंगे । वस्तुतः इस सम्प्रदाय-भेद का मूल कहां है यह कहना अत्यन्त ही कठिन है दिगम्बर और श्वेताम्बर दन्तकथाएं इसके सम्बन्ध में जो कुछ भी कहती हैं, वह कहीं-कहीं तो निर्बोध और बहुतांश में बिलकुल नैतिहासिक है । फिर भी इतना तो निश्चय ही कहा जा सकता है कि इस मतभेद ने जैन जाति की सर्व साधारण प्रगति र उन्नति में बहुत ही हानि पहुंचाई है। जैन साहित्य और इतिहास में मिलने वाली विरूद्ध दन्तकथाओं के कारण दोनों ही सम्प्रदायों को बहुत ही सहन करना पड़ा है । पारस्परिक विद्वेष और कभी-कभी तो इससे 1. मुकर्जी, राधाकुमुद, बही. पू 206 हुल्ट्ज का मत ग्राह्य है- 1. वह प्रमाण दिए बिना ही यह मान लेता है कि अनंतवर्मन छठी सातवीं सदी में अशोक की ई. पूर्व तीसरी सदी की ब्राह्मी लिपि का ज्ञाता और परिचित था ।... शास्त्री - बेनरजी, वही, पृ. 57। 'विद्वान पण्डित द्वारा दूसरा कारण यह कहा गया है कि अनंतवर्मन जो कि हिन्दू था को प्राजीवकों के प्रति यद्यपि कोई खास वैमनस्य नहीं था, परन्तु वह लोगों में विष्णु या कृष्ण भक्त प्रसिद्ध था । वही । यह बात कर्न के कथन पर ग्राधारित है ( इण्डि एण्टी, पुस्त 20, पृ. 361 आदि) परन्तु जैन सिद्धांत ग्रन्थ अथवा अन्य साहित्य से इसका समर्थन कुछ भी नहीं मिलता है। फिर भी, यह बिना किसी जोखम के कहा जा सकता है कि यह अपकृत्य हिन्दुओं या बौद्धों का कभी नहीं हो सकता है, बस, जो विकल्प शेष रहता है वह जैनों का है लगभग विश्वस्त बना देता है ।' इंस्क्रिपशनम् इण्डिकारम् पुस्त. 1 'ऐतिहासिक दृष्टि से भी जैन धावक विशेष इसे शास्त्री - बेनरजी, वही, पृ. 60 । हुल्ट्ज के वक्तव्य के लिए देखो कोरपस प्रस्ता. पु. 28 नया सरक 1925 का 2. शास्त्री - बैनरजी, वही, पृ. 53 । 3. हरनोली, वही. 266, 267 1 4. " इसमें कोई भी सन्देह नहीं रहता है कि छठी सदी ईसवीं में जब कि वराहमिहिर ने इस शब्द का प्रयोग किया, उसका लक्ष्य जैनों का दिगम्बर सम्प्रदाय ही रहा था" वही पृ. 266 Jain Education International " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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