________________
[61 है जो कि इस प्रकार है-"राजा प्रियदर्शी ने अपने राज्य के तेरहवें वर्ष में यह गुफा प्राजीवकों को दी है।''
दूसरा उल्लेख अशोक के सुविख्यात स्तंभ-प्राज्ञापत्रों में मिलता है जहां राजा अशोक अपने धर्माधिकारियों को कर्तव्यों को गिनाते हुए प्राजीवकों की सम्हाल रखने का कार्य भी उनको सौंपता है । फिर "राज्यारोहण के बीसवें वर्ष में अर्थात् ई. पूर्व 250 में उस राजा ने एक तीसरी मूल्यवान गुफा प्राजीविकों के निवास के लिए दी है ।" इसके अतिरिक्त एक उल्लेख उसके अनुगामी दशरथ के राज्य के प्रथम वर्ष याने ई. पूर्व 230 का नागार्जुनी टेकरी पर चट्टान से खोदी तीन गुहागों की भीतों पर उत्कीरिणत छोटे से लेख में मिलता है । यह लेख इस प्रकार हैं । “यह गुफा महाराजा दशरथ ने अपने राज्या रोहण के तुरन्त बाद ही सामान्य आजीवकों को चन्द्र-सूर्य तपे वहां तक निवास स्थान रूप से उपयोग करने को दी है।"
इस प्रकार "सात गुफागों में की याने दो बराबर टेकरी की और तीन नागार्जुनी टेकरियों की गुफाएं आजीवकों को (प्राजीवकेहि) देने का उल्लेख है । 'प्राजीबकेहि' शब्द तीन स्थानों पर से जानबूझ कर कुतर कर निकाल दिया गया सा लगता है जब कि अन्य प्रत्येक शब्द जैसे के तैसे देखे जाते हैं। यह कुकृत्य किसने किया होगा यह कहना कठिन है। परन्तु इतना तो स्पष्ट दीखता है कि राजा दशरथ के बाद बराबर टेकरियां जैन राजा खारवेल के हाथ में प्रा गई थी। उसके राज्य के 8वें वर्ष में अर्थात् अशोक-दशरथ काल के बाद ही वह गोरठगिरि में था। शिल्प के नियमानुसार लोमसऋषि गुफा पर से भी यह निश्चय किया जा सके ऐसा है । एक पवित्र श्रद्धावान जैन होने से खारवेल ने "ढोंगी गोशाल के ग्राजीवक अनुयायियों का तिरस्कृत नाम घिस कर मिटा देने और उनके चिन्ह तक का नाश कर देने का प्रयत्न किया होगा ।"
1. हरनोली, वही, पृ. 266 । देखो इण्डि. एण्टी., पुस्त. 20, पृ. 361 प्रादि । स्मिथ, अशोक, 1 म संस्क., पृ. 144 । प्राजीवकों के प्रति झुकाव अशोक की, बहुत सम्भव है कि, उसके मातापिता से ही वारसे में मिला था । 'यदि हम दंतकथा में विश्वास करें। विहांवंशटीका (पृ. 126) में जैसा कि पहले ही संकेत किया जा चुका है, उसकी माता के गुरू का उल्लेख है जिसका नाम जनसान का (देविमा कुलूपगो जनसानो नाम एको आजीवक) जिसको राजा बिंदुसार ने रानी के स्वप्नों का मर्म बताने के लिए बुलाया था अशोक के जन्म पूर्व । फिर दिव्यावदान (अध्या. 26) में बिन्दुसार ने स्वयम् प्राजीवक संत पिंगलवत्स को अपने समस्त्र पुत्रों की परीक्षा लेकर उनमें से कौन उसका राज्य-उत्तराधिकारी होने योग्य है यह बताने को बुलाया, लिखा है । मुकर्जी राधाकुमुद, वही, पृ. 64-65। '...आजीवक संत पिंगलवत्स ने, राजा के बुलाए जाने पर, उसके पुत्रों में से अशोक को ही उत्कृष्ट उत्तराधिकारी बताया था।' वही, पृ. 3 । 2 स्मिथ, वही, पृ. 155; एपी. इण्डि., पुस्तक 2. पृ. 270, 272, 274। 3. स्मिथ, वही, तीसरा संस्करण, प्र. 54। 4. हरनोली, वही, पृ.266 । देखो इण्डि. एण्टी. 7, पुस्तक20, पृ. 361 आदि; स्मिथ, वही, 1 म संस्क. पृ. 145। 5. शास्त्री-बेनरजी, वही, पृ. 59 ।। 6. वही प. 60 । देखो यह भी, 'दोनों स्थानों की तुलना कोई भी संदेह नहीं रहने देती है किगारधगिरि का हर्म्यमुख और लेख उदयगिरि (खारवेल) के लेखों और हर्म्यमुखों से बहुत निकट सम्बन्धित हैं और दोनों ही जैनों के बनवाए हुए हैं जिसने 'माजिबकेहि' शब्द को भ्रश कर अपना धर्मराग दिखा दिया है । वही, पृ. 6।। 7. वही पृ. 60 । 'उसने (खारवेल ने) प्रकृतया प्राजीवकों को इनमें से निकाल भगाया, उनका नाम भी खुरच दिया और कलिंगसेना को इन बराबर गुफाओं में ठहरा दिया था। अपूर्ण लोमसऋषि गुहा भी उसे बहुत सुविधायक हुई होगी। तथ्य जो भी हो, ऐसा लगता है कि, खारवेल ने मौर्य-काल पश्चात् के कारीगरों द्वारा इनकी भीतों को ठीक करने में लगाया था।' शास्त्री-बेनरजी, बिउप्रा पत्रिका, सं. 12, पृ. 310
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org