SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 142 ] इस संख्या को स्वीकार करते हुए विन्सेट स्मिथ कहता है कि 'हम जानते हैं कि मौर्य और उनके पूर्वज जनगणना लगातार किया करते थे, इसलिए इस सख्या में सन्देह करने का हमारे लिए कोई भी कारण नहीं है। इस शिलालेख की अन्य बातों का विचार करने के पूर्व उस समय के इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि फैक लेना उपयोगी है । डा. वारन्यैट के शब्दों में अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य तुरन्त ही टूट गया और पासपास के राजों को अपनी सीमा बढ़ाने की महत्वाकांक्षा पूरी करने का उपयुक्त अवसर पूरा पूरा मिल गया था। इन राजों में ही सिमुक नाम का एक राजा था जिसने ई. पूर्व तीसरी सदी के अन्तिम पाद में सातवाहन या सातकर्णी राजवंश की स्थापना की और इस वंश ने तेलुगू देश पर प्रायः पांच सदियों तक राज्य किया था । उसके अथवा उसके निकटस्थ उत्तराधिकारी उसके छोटे भाई कृष्ण या कान्ह के राज्यकाल में आंध साम्राज्य पश्चिम में कम से कम 74 देशान्तर और सम्भवतः अरब सागर तक भी विस्तार पा गया था। इन प्रारम्भिक सातवाहनों के काल में प्रांध्र राज्य की सीमा इतनी बढ़ गई थी कि उसमें सारा ही नहीं तो अधिकांश भाग विधर्व का, मध्यप्रदेश और हैदराबाद का समावेश होता था। 'परन्तु इस समय सूग और प्रांध शक्तियां ही देश के उस भू भाग पर जिसे अब मध्य भारत कहा जाता है, सत्ता जमाने का प्रयत्न नहीं कर रही थीं। हाथीगुफा का लेख बताता है कि ई. पूर्व लगभग 180 में कलिंगाधिपति खारडेल भी इसके एक प्रतिद्वन्द्वी रूप में 4 आया।' उस काल के राजनीतिक वातावरण में अपने देश को महत्व का स्थान प्राप्त कराने की खारवेल की महेच्छा ने उसे उसके पड़ोसी दक्षिण की सार्वभौम सत्ता के साथ टक्कर लेने को उकसाया। आंध्रराजा सातकर्णी के विरूद्ध उसने अपने राज्यकाल के दूसरे ही वर्ष पश्चिम में एक बड़ी सेना भेज दी। इस वंश के शिलालेख के अनुसार यह राजा सातवाहनकुल का और पुराणों के अनुसार मांध (प्रांधनृत्यों) कुल का था। मौर्य राज्य की दक्षिणी सीमा पर की यह अवशीभूत जाति थी और इसका घर मद्रास प्रेसीडेंसी का गोदावरी एवं कृष्णा नदी के बीच का तटीय प्रदेश था। सातवाहनों के मूल स्थान और वर्ण का विचार करते हए श्री बारूले कहते हैं कि खारवेल के लेख में सातवाहनों को कलिंग के पश्चिम में बताया गया है; जैन दन्तकथा में निजाम राज्य का पेठरण उनकी राजधानी कही गई है; कथासरित्सागर में इस वंश के उद्भव के दिए वर्णन में इस वंश के संस्थापक का जन्म पैठण में हुआ कहा गया है...सातवाहनों के अधिकांश शिलालेख नासिक में पाए जाते हैं; उनका प्राचीनतम शिलालेख पश्चिमीभारत के नानाघाट में है। उनके प्राचीनतम सिक्के भी पश्चिमी भारत में ही पाए गए हैं...इससे ऐसा मालूम 1. स्मिथ, राएसो पत्रिका, 1918, 4.545। 2. नासिक के शिलालेख सं. 1144 और पूना के उत्तर-पश्चिम 50 मील दूरस्थ नानाघाट के लेख सं. 2114 में इसका निर्देश है। 3. कैहिई, भाग 1, पृ. 599, 600। 4. वही, पृ. 600। 5. जिस प्रांध्र राजा का यहां संकेत किया गया है, वह पुराण वंशावली का तृतीय श्री-सातकर्णी ही हो सकता है कि जिसकी स्मृति, बम्बई के पूना जिले के प्राचीन नगर जूनार को कोकण से जाने वाले दर्रा, नानाघाट में मिली विरूपकृत परन्तु लेखोंकितउभरी मूर्ति में सुरक्षित है ।-व्हलर, प्राकियालोजिकल सर्वे ग्राफ व्येस्टर्न इण्डिया, सं. 5, पृ. 59 । 6. पाजींटर, डाइनेस्टीज आफ दी कलि एज, पृ. 36 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy