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________________ 208 ] स्थपित की दृष्टि से नहीं तो पुरातत्व की दृष्टि से तो अवश्य ही हमारा ध्यान आकर्षण करनेवाली उदयगिरि की गुफाओं में हाथीगुफा की गुफा है जो कि एक बड़ी प्राकृतिक गुफा है और उसका शैलप्रान्तलेख लिखने के उपयुक्त चिकना कर दिया गया प्रतीत होता है। इस लेख का विचार तो विस्तार से हम पहले कर ही चुके हैं । अाज जिस रूप में यह गुफा खड़ी है, उसमें शिल्प की विशिष्टता बहुत ही न्यून रह गई है । परन्तु इतना निश्चय तो है ही कि उसके प्राकृतिक होने के बावजुद, परन्तु उसके अभिलेख की महत्ता को देखते हुए हाथीगुफा कुछ कम महत्व की गुफा नहीं होना चाहिए । इसका यह कारण कि पहाड़ों के टोलों में गुफा या मन्दिर खोदने की भावना शाश्वत पुण्य की आकांक्षा में से उद्भव होती है और वैसे स्थान या मन्दिर या स्मारक कठोर पाषाण पर्वत-खण्डों में ही बनाए या खोदे जा सकते हैं क्योंकि जब तक ये स्मारक खड़े रहते हैं, वहाँ तक उनके निर्माता को पुण्य प्राप्त होता रहता है। फिर इस हाथीगुफा को कला की दृष्टि से व्यापक कि याने और सुधारने गया था, यह इस बात से समथित होता है कि सामान्यता गुफा-खोदनेवाले ऐसी चट्टान ही इसके लिए पसन्द करते हैं कि जो ठोस होने के साथ ही दरार और सलवालो भी नहीं हो न कि प्राकृतिक खोह । इसका कारण यह है कि प्राकृतिक खोह का टोल पोला होता है और उसके कभी टुकड़े टुकड़े भी हो सकते हैं और इसलिए उसमें रहनेवालों को जीवन का भय सदा ही बना रहता है । जैसा कि कहा जा चुका है, कला की दृष्टि से उदयगिरी टेकरी की रानी और गणेश गुफाए रोचक हैं । ये दोनों वेष्टनीवाली दुमंजिली गुफाए हैं और इनके ऊपर एवं नीचे की प्रोमारी में अनेक भवन-द्वार हैं। रानी गुफा सब गुफाओं में बड़ी और सुन्दर सजी हुई है। उसकी भव्य नक्काशीदार वेष्टनियाँ मानवी प्रवृत्तियों के सुन्दर दृश्य प्रस्तुत करती हैं। इन उत्कीरिणत दृश्यों में और गणेशगुफा में बहुत-कुछ उनके ही पुनरावृत्ति के विषय में जिला विवरणिका एवम् चक्रवर्ती आदि सूप्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार पार्श्व के जीवन प्रसंग प्रस्तुत किए गए हैं। इस बात का विचार हम पहले ही कर चुके हैं, अपितु हम इन वेष्टनियों के दृश्यों के विषय का भी विस्तार मे कुछ कुछ विचार कर चुके हैं। इन प्राचीन जैन अवशेषों के शिल्प के विषय में हम देखते हैं कि, मथुरा शिल्प के नमूनों की ही भांति जिनका कि विचार हम आगे करने वाले हैं, इनमें भी स्त्रियों और पुरुषों के वस्त्र एवम् वेश-भूषा में ग्रीक और भारतीय तत्वों का समिश्रण है । ई. पूर्व युग की सदियों में यवन भारतवर्ष में बहुत भीतर तक प्रवेश कर गए थे, यह बात जहाँ स्वतः प्रमाणित है वहाँ खारवेल के हाथी गुफा लेख से भी यह प्रमाणित होता है जिसमे यवनराज डिमेट्रियस को भारतवर्ष से पीछा हटा देने में खारवेल के प्रभाव का वर्णन है। फिर इन दृश्यों के चित्र, मथुरा शिल्प की भांति ही, कुछ ऊंचे उभरे खुदे हैं और इनमें की स्त्रियां बहुत मोटे सांकले भी पैरों में पहनी हुई हैं। उड़ीसा और अन्य जैन अवशेषों की यह विशिष्टता इस वक्तव्य की सत्यता का उचित ही समर्थन करती है कि "पृथ्वी भर के निवासियों में शृगारिक भूषणों का आदान-प्रदान उसी समय से चलता रहा होगा जब से कि मनुष्य ने पहले पहले सज्जा रूपों का चेतन रूप में पैदा करने लगा था। और यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि इस प्रकार के नकल किए भूषणों में नकलकर्ताओं द्वारा प्रयोग करते समय अवश्य ही कुछ संस्कार हुए बिना नहीं रहा था । इस प्रकार की नकल और संस्कार की व्यापकता असीम है और ये भूषण अपने मूल स्थान में अद्भुत रूप से परिवर्तित हुए वापिस भी पहुंच जाते हैं परन्तु बहुधा उनका पहचानना ही संभव नहीं होता है।" 1. देखो कुमारास्वामी, वही, पृ. 381 2. एण्ड्रज, इंफ्ल्यूएन्सेज आफ इण्डियन आर्ट, प्रस्तावना, पृ. 11 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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