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________________ [ 145 उसके राज्य के पाठ वर्ष का प्रारम्भ मगध की चढ़ाई से होता है। वह एक बड़ी सेना लेकर गोरगरि के सुदृढ़ गढ़ पर धावा बोलता है ।" लेल की यह धाठवीं पंक्ति महत्व की है। इसके विषय में पहले ही बहुत कुछ कहा जा चुका है। उसमें निर्दिष्ट इण्डो-ग्रीक राजा डिमेट्रियस के उल्लेख ने कलिंग के इतिहास के लारवेल के समय के बहुत उलझन भरे और महत्वपूर्ण प्रश्न को स्पष्टीकरण कर दिया है उसकी पूर्व की पंक्ति के कितने ही अंश के साथ श्री जयसवाल के पंक्ति के नए वाचन के अनुसार उसका शाब्दिक अनुवाद इस प्रकार है और इसी को हमने ग्राधार लेकर यहां विवेचन किया" पाठवें वर्ष में वह (खारवेल) पोरठगिरि (गढ़) के सुरढ़ प्राहाते याने दीवाल, बाड) को बड़ी सेना द्वारा आक्रमण करवा कर, राजगृह के चहुं ओर दबाव डालता हैं ( राजगृह पर घेरा डालता है)। इस खबर हंगामे के कारण, वीरता के कार्यों से उत्पन्न (याने गोरठगिरि के गढ़ की विजय और राजगृह के आक्रमण ), प्रतापी राजा डिमेए (रियस) सेना और परिवहन को खींच याने अपनी सेना और रथों द्वारा अपने को सुरक्षित करता हुधा मथुरा का घेरा उठाकर लौट गया ।" इस प्रकार हम देखते हैं कि अपने राज्यकाल के पाठवें वर्ष में खारवेल ने मगध पर प्राक्रमण किया था। यह स्पष्ट कर देता है कि वह न केवल स्वतन्त्र राजा ही अपितु आक्रामक राजा भी हो गया था। वह गया से पाटलीपुत्र की प्राचीन मड़क पर (गोरठगिरि) बारबर पहाड़ी तक पहुंच जाता है। खारवेल के इस अभियान की बात सुन कर उत्तरभारत का राजा डिमेट्रियस, पलायन कर जाता है, परिणामत: मथुरा का घेरा उठ जाता है, " और जिसके भीतरी आक्रमण और भारत से पलायन का वर्णन बैक्ट्रिया के इतिहास में ऐतिहासिकों द्वारा किया गया है ।" बहुत सम्भव है कि पुष्यमित्र ही उस समय सिंहासन पर था। पुराणों के अनुसार, पुष्यमित्र ने 16 वर्ष तक राज्य किया था और विसेंट स्मिथ के अनुसार पुष्यमित्र ने अन्तिम मौर्य सम्राट हृदय को ई. पूर्व 185 में सिंहासन से उतार दिया था। जायसवाल के अनुसार यह घटना ई. पूर्व 188 में पटिल हुई और इसलिए पुप्यमित्र ने ई. पूर्व 185 से 149 या 188 से 152 तक राज्य किया । लेख की नौवीं पंक्ति में महत्व की ऐसी कोई बात नहीं है। इसमें ब्राह्मणों के दिए भूमि दान का वर्णन है, और इस प्रकार हिन्दु राज्य में प्रचलित ब्राह्मणों को दिए जाने वाले सामूहिक भूमि दान का यह समर्थन करती है ।" हम खारवेल के वैदिक रीत्यानुसार अभिषेक किए जाने का पहले ही कह आए हैं। वैसे ही यहां भी उनका जैन होना सनातन रीति की राष्ट्रीय संविधानिक प्रथा की परिपालना में किसी भी प्रकार की रुकावट नहीं डालती है। दूसरा निष्कर्ष जो हम इससे निकाल सकते हैं वह यह कि श्रार्यों के मूल जीवन पर स्थायी कुछ न कुछ प्रभाव पड़ा ही था चाहे और बौद्धधर्मं ब्राह्मणधर्म के प्रचलित आकार के विरुद्ध या दिखावटी मान और धन्य वर्गों से सामाजिक उच्चता का उनका दावा इन नहीं हुआ था। संगठन का जनता के सामाजिक उनका धर्म कुछ भी रहा हो। महावीर कॉल का जैन प्रत्यक्ष क्रांति ही हों, फिर भी ब्राह्मणों के प्रति यथार्थ क्रांतियों से विस्कुल ही प्रभावित 1. महता सेना महत भित्ति ) - गोरवगिरि घातपविता यादि वही सं. 4. पृ. 399, और स. 13, पृ. 227 2. विजा पत्रिका सं 4, पृ. 378, 379 और सं. 13, पृ. 228, 229 । 3. मेयेर (ई), वही भाग 9, पृ. 880 1 4. पार्जीटर वही, पृ. 70 1 5. स्मिथ, पर्ली हिस्ट्री ग्राफ इण्डिया, पृ. 204 I 6. विउमा पत्रिका सं 13, पृ. 243 देखो वही, सं. 4, पृ. 400 धौर सं. 13, पृ. 229 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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