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________________ 146 ] यद्यपि ऐसी बाते व्यक्तिगत उदार भावनाओं पर बहुतांग में निर्भर करती है, फिर भी खारवेल अशांक की भांति ही प्रतापी सम्राट होने पर भी धम्राट नहीं था अशोक के शिलालेखों की भांति इसकी यह शिलालेख भी उसे परम उदार और धर्माध वृत्ति से दूर ही सिद्ध करता हैं । सर्वधर्म समभाव उसका गुण था और उसकी उदारवृत्ति और स्वभाव के कारण ही वह स्वयम्को 'म धर्म के लोगों का पूजक' कहता हो।' दसवीं पंक्ति कहती है कि प्यारवेल ने 38,00,000 सिक्के सर्च कर महाविजय (विजय प्रसाद) प्रमाद वनवाया था। उसके बाद 'साम दाम और दण्ड' नीति के अनुसार विजय के लिए उत्तर भारत की ओर उसने प्रयाण किया एवम् जिस पर उसने ग्राक्रमण किया उनसे उसे मूल्यवान भेटे प्राप्त की। भारतीय राजनीति की तीसरी प्रकार याने भेद नीति का उसने प्रयोग नहीं किया यह एक उल्लेखनीय घटना है और इसका कारण कदाचित यह हो कि खारवेल की नीति के लिए उसका प्रयोग ग्रति नीच और सम्मानीय माना गया था। * इसके बाद की पंक्ति हमारे उद्देश के लिए विशेष उपयोगी नहीं है । गधे के हल द्वारा खारवेल ने कोई मण्ड (सिंहासन) उखड़वाया इसका इसमें कहा गया है ।" यह भी कहा गया है कि वह किसी नीच यो दुष्ट राजा का सिहासन था। इस राजा की नीचता था दुष्टता जैनममं विरोधी पाचरण ही होना चाहिए। यहां जिस निमन की बात है वह कोई सजाई हुई बैठक या कोई विधी हुई गादी भी हो सकती है उस नीचा दुष्ट राजा का ऐसा कुछ भी उल्लेख शिलालेख में नहीं किया गया है कि जिससे हम उसे पहचान सकें। फिर खारवेल 113 वर्ष पूर्व प्रथवा 113" वर्ष बनी हुई सीने की प्राकृति या प्राकृतियों के समूह को नाश करता है। खारवेल के 11 वें वर्ष से 113 वर्ष पूर्व की गिनती लगाएं तो इस सीसे की प्रकृति या श्राकृतियों के निर्माण की तिथि ई. पूर्व 285 ग्राती है । परन्तु छटी पंक्ति के अनुसार यदि इसे नन्द संवत् मानते हैं तो तिथि ई. पूर्व 345 प्राती है । प्रथम घटना अपराज (दुष्टराज) की है। ऐसा लगता है कि दुष्टराज ने किसी प्रकार का याक्रमण किया होगा । परन्तु दूसरी प्रकार की घटना कुछ भी समझ में नहीं प्राती है। ये प्राकृतियां जैनों के सिवा अन्य नहीं थीं, यह निश्चित ही लगता है क्योंकि एक तो ऐसा कुछ कहा नहीं गया है और दूसरे उससे उसकी परधर्म उदारता का भी बाधा पहुंचती है। जैसा कि हम मागे सत्रहवीं पंक्ति में देखेंगे, खारवेल गव धर्मों का सम्मान करनेवाला था और इसीलिए ऐसा लगता है कि ये श्राकृतियां जैन तीर्थ करों को उपहास्य रूप में दिखाने वाली ही हों । इस घटना के सिवा इस पंक्ति से यह भी मालूम होता है कि खारवेल ने उत्तरापथ (उत्तर पंजाब और मीमा प्रदेश) पर भी अपनी धाक बैठा दी थी। फिर वारहवीं पनि भी हमारी दृष्टि से महत्व की है। सिर्फ खारवेल के विषय में ही उसका महत्व हो सो बात नहीं है । 'नन्द और उसके धर्म, जैनधमं और नंदवंश', 'जैन धर्म की प्राचीनता' और 'जैनों में मूर्तिपूजा' आदि प्रश्नों पर भी इससे पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इसमें के अनेक प्रश्नों की चर्चा तो पहले ही की जा चुकी है और शेष की चर्चा या यथास्थान की जानेवाली है। यहां तो मात्रा और इसके पूर्व की पंक्ति के मुख प्रदेश का शाब्दिक अनुवाद देना ही पर्याप्त होगा : -- 'बारहवें वर्ष में (वह) उत्तरापथ के राजों में मय का संचार करता है और मगध की जनता में बड़ा प्रातंक उत्पन्न कर (यह) अपनी गजसेना को सुगांगेय में प्रवेश कराता है, और वह मगध के राजा बहसतिमित्र को अपने 1. सय पासंद पूजकों... विउप्रा पत्रिका, सं. 4, पृ. 403 1 2. देखो वही, पृ. 400 3. देखो वही धौर सं. 13, पृ. 230 4. देखो वही 5. वही । 6. वही, पृ. 2321 7. सव - देव । यतन - संकारकारको... बिउप्रा पत्रिका, सं. 4, प्र. 4031 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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