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________________ [ 147 चरणों में नमाता है । (वह्) उस कलिगजिन की प्रतिमा को जो कि राजा नन्द द्वारा अपहरण कर ली गई थी, पुनः अपने देश में लोटालाता है और यंग एवम् मगध से दण्ड स्वरूप गृह रत्न भी वह लाता है।" इस प्रकार वायव्य सीमा के देशों को वशीभूत करता है और मगधराजा को उसके चरणों में भेंट चढ़ाने को बाध्य करता है। इससे यह भी जाना जाता है कि मगध को राजा नन्द पाटलीपुत्र को कोई जैनप्रतिमा ले गया था जो कि बारहमतिभित्र के हरा कर एवम् मगध की विजयों के अन्य विजय चिन्हों सहित उदीमा में मोटा लाता है। प्रथम दृष्टि में यह जीव है कि यह प्रतिमा 'कलिगजिन' क्यों कही गई है। इससे ऐसे किसी तीर्थ कर का मास नहीं होता है कि जिसकी जीवनलीला कलिंग से सम्बन्ध हो, परन्तु ऐसा लगता हूँ, जैसा कि मुनि जिमविजयजी कहते हैं, कि प्रतिष्ठा के स्थान के नाम से प्रतिमाओं को पहचान सदा ही की जाती है । " शतुरंजय के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव उदाहरणार्थ तु जय जिन कहे जाते हैं । इसी प्रकार ग्राबू की मूर्ति 'अ'जिन' और घुलेवा (मेवाड़) की मूर्ति 'धुवेवाजिन' कहलाती है। इसलिए यह श्रावश्यक नहीं है कि मूर्ति उमी जिन की हो कि नीला कलिंग से सम्बद्ध हो। कलिगजिन को वाक्य से इसलिए इतना ही अभिप्रेत है कि इस जिनमूर्ति की पूजा कलिए कलिन को राजधानी में हुआ करती थी। } तिमि फोन था कि प्रख्यात राजा से उसकी पहचान इसकेकी ति का विचार करने के पूर्व की जा सकती है और कलिंग में जैन धर्म कब से प्रचलित था, इन बातों का विचार करना यावश्यक है । उस काल का समकालिक इतिहास देखते हुए यह बात स्पष्ट है कि यह बहुपतिमित्र मुगराज पुपमित्र ही था । पश्चिम के सातवाहनों की भाँति वह ब्राह्मण था और उसने प्राचीन ब्राह्मण विचारों का विप्लव जगा कर मौर्यो को उखाड़ अपने वंश का राज्य स्थापन कर लिया था। इसका इतना ही अर्थ है कि ई. पूर्व दूसरी सदी में उसने ब्राह्मणधर्म की पुनः स्थापना की थी । तारानाथ ( ई. 1608, प्राचीन ग्रन्थों के प्राधार से) कि जिसका शुद्ध अनुवाद स्वीफनर ने किया है, की साक्षी दिव्यावदान के मन्तव्य से मिलती है जो कहता है कि पुण्यमित्र पाखण्डियों का मित्र था और उसने विहारों का भ्रम किया एवम् मियों को हनन किया था :-- "ब्राह्मगा राजा पुष्यमित्र की अन्य तिथियों के साथ लड़ाई हुई। उसने मध्यदेश से जलंधर तक के अनेक विहार जला कर भूमिसात कर दिए थे।"5 मित्र के इस धार्मिक विलय के पीछे खास राजनैतिक कारण भी होंगे परन्तु कहना चाहिए कि महान मौर्य सम्राट प्रशोक ने यह कदाचित मोचा ही नहीं था कि राजनैतिक सहजज्ञान का उसमें प्रभाव उसकी धार्मिक नीति, उसकी सर्वदेव पूजा, और उसका विभाजन सब ने मिल कर उसकी साम्राज्य की जड़े खोखली कर दी हैं । अन्यथा उसकी सुर जमाई हुई सैनिक तानाशाही महान् भारती नरेश की मृत्यु के पश्चात् 40 या 50 वर्ष में ही लुप्त नहीं हो जाती कि जिस सम्राट का बौद्ध संसार ग्राज भी प्रेम से स्मरण करती है घोर जो संसार भर में एक उत्तम और भला राजा माना जाता है। उसकी मृत्यु उत्तर भारत के ब्राह्मणों, दक्षिण के सत्ताशील ग्रांनों और भरत के विदेशी दुश्मनों को हितावह हुई। उसकी मृत्यु के पश्चात् हिन्दूकुश तक की मौयं सत्ता निर्बल हो 1. सेहि वितासयतो उत्तरापधराजानो मगधानां च विपुलं भयं जनेतो.. अंगमागच वसु च नेयाति वी. सं4, पृ. 401, पौर सं. 13. पृ. 232 2. देखो वा पत्रिका, मं. 4, पृ.3861 3. वही । 4. देखो कोयल एंड नील, वही, पृ. 434 1 विउप्रा 5. स्कीफनर तारानायूस हिस्ट्री ग्राफ बुद्धीज्म, पृ. 81 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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