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ईलियट', पुसिन , आदि जो इतिहासवेत्ता और महान् पण्डित हैं, सब एक ही मत रखते हैं । डा. बेलवलकर लिखता है कि सांख्य, वेदान्त और बौद्ध जैसे अधिक विकसित आध्यात्मिक दर्शनों के उद्भव में समकालिक माने जाने वाले जैनधर्म को नीतिशास्त्र और आध्यात्म-विद्या की दृष्टि से योग्य न्याय नहीं दिया गया है बात यह है कि महावीर ने अपने दर्शन का अस्तित्व प्राचीन पुरुषों से वारसे में प्राप्त किया था और उसको उनने उसी परिवर्तित रूप में बाद की प्रजा को दे देने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं किया था।
.. उत्तराध्ययनसूत्र की विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना में डॉ. शाटियर लिखता है कि हमें दोनों ही बातें स्मरण रखना चाहिए कि जैनधर्म महावीर से अवश्य ही प्राचीन है और उनके प्रसिद्ध पुरोगामी पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक पुरुष हो गए हैं और इसलिए मूल सिद्धांत की प्रमुख बातें महावीर के बहुत समय पूर्व से ही संहिताबद्ध हो गई होगी। अन्तिम परन्तु अति महत्व का उल्लेख डॉ. गेरीनोट का है जो इस प्रकार है कि पार्श्वनाथ ऐतिहासिक व्यक्ति हो गए हैं इसमें शंका ही नहीं है । जैन मान्यतानुसार वे 100 वर्ष जीवित रहे और महावीर से 250 वर्ष पूर्व उनका निर्वाण हुग्रा। इससे उनका समय याने कार्यकाल ई. पु. आठवीं सदी का कहा जा सकता है। महावीर के माता-पिता पार्श्वनाथ के धर्म के अनुयायी थे ।'
महावीर के पहले के तीर्थंकरों की विद्यमानता के सम्बन्ध में इतने, अगिरणत प्रमाणों के ऐतिहासिक भ्रमसंकुलता भय से रहित होकर ऐसा कह सकते हैं कि आधुनिक खोज पार्श्वनाथ के समय तक तो ठीक-ठीक पहुंच गई है। अन्य तीर्थंकरों के लिए डॉ. मजुमदार के अमप्राय का जो जैन कथानको को अवगणना की जोखम उठाकर भी कहते हैं कि जनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव बिठूर में वैराजवंश (ई. पू. 29 वीं सदी) के राजा थे । हम समर्थन नहीं कर सकते हैं कि हम डॉ. याकोबी के शब्दों में अन्त में यह कहेंगे कि 'जैनधर्म की प्राकऐतिहासिकता की समालोचना की कुछ झांकी देने के साथ ही हम हमारी खोज का कार्य यहां समाप्त कर देते हैं । अन्तिम दृष्टि बिन्दु जो कि हम देख सकते हैं वह पार्श्वनाथ हैं। उनके पूर्व का इतिहास सर्व कल्पित कथानको और मान्यताओं की सुध में खो गया, ऐसा लगता है।"
1. इलियट, हिन्दु इज्म एंड बुद्धीज्म, 1, पृ. 110। 2. पूसेन, दी वे टू निर्वाण, पृ. 67 । 3. वेल्वलकर, वही, पृ. 107 । 4. शटियर, उत्तराध्ययनसूत्र, प्रस्तावना पृ. 21 । 5. गेरीनोट, वही, और वही पृष्ठ । 6. मजुमदार, वही और वही पृष्ठ । 7. याकोबी, वही, पृ. 162 ।
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