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धनुसार, 'अजमुखी' उचित ही बनाए गए हैं जैसे कि दूसरे शिल्प की आकृति में हैं। इस शिला' की प्राकृति की कनिंघम के चार पुतलों की आकृतियों से तुलना करने पर डा. व्हूलर, प्रख्यात् पौर्वात्यविद्, कहता है कि 'शिशु की स्थिति और उसे लिये स्त्री को भावभंगिमा का एकदम साम्य बिलकुल ही स्पष्ट है धीर इस बात का नेगमेश नेमेसो की निचान्त प्राकृति के साथ विचार करते हुए, हम इस
निष्कर्ष पर अनिवार्यतः पहुँचे बिना
रही नहीं सकते हैं कि निर्दिष्ट दन्तकथा दोनों शिल्पों में एक ही होना चाहिए।"
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वास्तव में उड़ीसा के और गुजरात के जूनागढ़ या गिरनार के कार्य को वेष्टनियों सहित और छोटी से छोटी बात और सजावट में से सजे तोरण व प्रयागपट हमारे समक्ष कला के अवशेष रूप में उनमें सौन्दर्य, आदर्श और आध्यात्म का उत्तम संमिश्रण भारतीय की अपेक्षा इसका अनुभव अच्छी तरह किया जा सकता है क्योंकि एक दूसरे में भेद, विस्तृत कला-विज्ञान के क्षेत्र नहीं पितु रूचि के अज्ञात प्रदेश में प्रकट हो ही जाता है ।
गुहामन्दिर और निवास अपनी सूक्ष्म तक्षणपरिपूर्ण, श्रौर मथुरा के अवशेषों के सुन्दरता ही नहीं अपितु उसके जीवित प्राप्तवचन हैं कला का त्रिगुणादर्श प्रदर्शित होता है । देखने
1. बहूलर. वही, प्लेट 2, ए । 3. कूलर, वही, पृ. 318 ।
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2. कनियम यस पुस्त, 20 प्लेट 4
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