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________________ पावं की ऐतिहासिकता के प्रमाण-खोज की दृष्टि से श्री पार्श्वनाथ का जब हम विचार करते हैं तो ऐसा देखते हैं कि शिलालेख या स्मारक रूप से प्रमाणिक कोई भी प्राधार हमें ऐसा नहीं मिलता है कि जिसका सीधा सम्बन्ध उनसे हो । परन्दु कितने ही शिलालेख और स्मारक ऐसे हैं कि जिनसे उनके सम्बन्ध में परोक्ष अनुमान निःसंकोच किया जा सकता है। __ मथुरा के जैन शिलालेखों की परीक्षा करने पर हम देखते हैं कि उनमें गृहस्थ-भक्तों द्वारा ऋषभदेव को अयं अपित किए जाने के उल्लेख हैं। इसके अतिरिक्त बहुत से शिलालेखों में न केवल एक अर्हत ही का अपितु अनेक अर्हतों का उल्लेख है । "उन लेखों में राजों के नाम हो या नहीं हों, फिर भी वे सब इण्डोसिदियन काल के हैं ऐसा स्पष्ट प्रकट होता है, और यदि कनिष्क एवं उसके वंशजों का काल शकयुग ही माना जाता हो तो वे सब लेख पहली और दूसरी सदी के मालूम देते हैं। यदि महावीर को जैनधर्म का संस्थापक माना जाए तो जिनको अर्पिण करने का उल्लेख ऊपर किया गया है उन लोगों के और महावीर के बीच में समय का बहुत बड़ा अन्तर नहीं होना चाहिए, ऐसा अवश्य ही कहा जा सकता है क्योंकि वह अन्तर निरा छह सदी का ही है और यह अन्तर ऐसा नहीं है कि जिसमें जैनधर्म की स्थापना विषयक प्रमुख बातों से ये लोग बहुत घनिष्ठ परिचय नहीं ग्व पाए हों । फिर यह भी दृष्टव्य है कि यह अयं एक से अधिक अर्हतों को पौर प्रमुख रूप से श्री ऋषभ को दिया गया है। यह बात स्पष्ट प्रमाणित करती है कि जैनधर्म का प्रारम्भ अति प्राचीन है और तब से अब तक में इसके अनेक तीर्थकर भी संभवतः हो चुके हैं। फिर हमें जैनों के एक महान् तीर्थ' का अक्षयकीर्तिस्तम्भ स्वरूप प्रमाण भी प्राप्त है और यह महान तीर्थ है हजारीबाग जिले का समेतशिखर का पहाड़ जिसको पार्श्वनाथ या पारसनाथ पहाड़ी ग्राज कहा जाता है । कल्पसूत्र में जो कि श्री भद्रबाहु की रचना मानी जा चुकी है और इसलिए वह ई. स. पूर्व 300 वर्ष का है, एवं अन्य जैन साहित्य-ग्रन्थों में पार्श्वनाथ के पूर्व वहां पहुंच जाने और उसी पर निर्वाण प्राप्त करने का प्रमाण भी हमें प्राप्त है। समकालिक साहित्य को जब हम देखते हैं तो उसमें अनेक ऐसे उल्लेख और घटनाएं मिल जाती हैं कि जो पार्श्वनाथ के ऐतिहासिक जीवन के विषय में जरा सी भी शंका रहने नहीं देती है । यहां उन सभी बातों की सत्यता की परीक्षा करने की यद्यपि हमें अावश्यकता नहीं है फिर भी उनमें से थोड़ी सी प्रमुख उपयोगी पौर अत्यन्त विश्वस्त बातों को यहां गिना जाता है। 1. प्रीयताम्भगवानुषमश्री: (भगवान् श्री ऋषभदेव, प्रसन्न हो)- एपी. इण्डि., पुस्तक 1, पृ. 386; लेख सं. 8 2. नमो प्ररहंत्ततानं (अर्हतों को नमस्कार), वही, पृ. 383, लेख सं. 3 ।। 3. वही, पृ. 371। 4. तीर्थ, जैन परिभाषा के अनुसार, पवित्र यात्रा स्थान को कहते हैं। 5. समेतशिम्बर, जिसे मेजर रेनाल के नक्शे में पारसनाथ कहा गया है, बंगाल और बिहार के बीच की पहाड़ियों में है। जनों की दृष्टि में यह महान् पावन और पूजनीय है। भारतवर्ष के दूर-दूर के प्रदेशों से यात्री लोग यहां प्रति वर्ष यात्रा के लिए प्राते हैं ऐसा कहा जाता है । कालबुक, वही, पुस्त. 2, पृ. 213। इस पहाड़ी पर पाश्वं का सुप्रसिद्ध मन्दिर है । 6. शार्पटियर, उत्तराध्ययनसत्र, प्रस्तावना, पृ. 1 3-14 । 7. देखो कल्पसूत्र, मूत्र 168; निर्वाणमासत्र संमेताद्रीययो प्रभुः । हेमचन्द, त्रिषष्ठि-शलाका, पर्व 9, श्लो. 316. प. 2191 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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