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बौद्ध साहित्य में जैनों का प्रथम उल्लेख--जैन शास्त्रों में जन साधू और साध्वी को 'निगंठ और निर्गठि' संस्कृत में 'निग्रन्थि और निग्रन्थिरणी' के नाम से जो कहा गया है इसका अर्थ 'बिना गांठ या प्रासक्ति' के होता है।' बौद्धशास्त्रों में भी इनका ऐसा ही उल्लेख है। वराहमिहिर और हेमचन्द्र भी उनको 'निग्रन्थि' ही कहते हैं । परन्तु अन्य लेखक उनके 'विवसन'", 'मुक्ताबर' जैसे एकार्थी शब्द का प्रयोग करते हैं । जैनों के धार्मिक पुरुषों के लिए 'निग्रन्थि' नाम अशोक शिलालेखों में 'निगंठ' रूप में प्रयुक्त हना है । बौद्धों के पिटकों में बुद्ध और उसके अनुयायियों के विरोधी के रूप में 'निगंठ' शब्द का बारम्बार उपयोग किया गया है । बौद्धशास्त्रों में जहां उस शब्द का उल्लेख है वहां मुख्य रूप में उनके मत का खण्डन करने और स्पष्ट रूप से भगवान बुद्ध की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए ही उसका उपयोग हुअा है।' इससे दो बातें सिद्ध होती हैं । एक तो यह कि जैन साधू 'निगंठ' कहलाते थे और दूसरी यह कि बौद्ध साहित्य की दृष्टि से जैन और बौद्ध परस्पर महान् प्रतिस्पर्धी थे ।
भगवान महावीर का विचार करते हुए हम यह देखते हैं कि उनके पिता सिद्धार्थ काश्यप गोत्री थे कि जो जात क्षत्रियों का ही एक गोत्र माना जाता था। इसलिए भगवान महावीर अपनी जीवनावस्था में ज्ञातपुत्र के नाम से भी पहचाने जाते थे। पाली भाषा में ज्ञानी का समानार्थी शब्द नाय है और इसीलिए ज्ञातृपुत्र और नायपुत्त का अर्थ एक ही हैं और कल्पसूत्र एवं उत्तराध्ययनसूत्र में महवीर के लिए प्रयुक्त "नायपुत्त" विरूद से इसका अधिक मेल बैठ जाता है। इस प्रकार निगंठनात निगंठनातपुत्त, या केवल नातपुत्त नामपद महावीर के अतिरिक्त प्रौर किप्ती का बोध नहीं कराता है । डॉ. व्हूलर कहता है कि जैनों के मुख्य स्थापक का सच्चा नाम खोज निकालने का यश डॉ. याकोबी और मुझ को है। ज्ञातृपुत्र शब्द जैन और उत्तरीय बौद्धशास्त्रों में प्रयुक्त हुआ है। पाली में यह शब्द नातपुत्त और जैन प्रकृत में नायपुत्त है । इत अथवा ज्ञाति उस राजपूत जाति का नाम ही मालम देता है कि जिसमें से निर्ग्रन्थ उद्भव हुए थे।
1. देखो उत्तराध्ययन, अध्या. 12, 163 16, 2; प्राचारांग स्कंध 2, अध्य 3, 2 और कल्पसूत्र सू. (130 पोर) 2 देवो दोधनिकाय, 1. प. 50; बुद्धीग्म इन ट्रांसलेशंस (हावर्ड प्रो. सिरीज), 3, प. 224, 342-43 469, पादि; महापरिनिवारण सुत्त, अध्या. 5,260 ग्रादि । उदाहरणार्थ देखो ह्रिस डेविड्स, से. बु. ई. पुस्त. 3, प. 166 । 3. शॉक्योपाध्यायात निर्ग्रन्थनिमित्त...यादि । -वराहमिहिर, वृहत्संहिता, अध्ययन 51, ग्लो. 21; वराहमिहिर (छठी सदी) की वृहत्संहिता, 60, 19 (सम्पा, कर्न), नग्न जैन यतिबों का धानिक वेष बताया गया है। वार्थ, वही, पृ. 1451 4. निर्ग्रन्थो भिक्षु...ग्रादि । -हेमचन्द अभिधानचितामणि, श्लो. 761 5. विवसनसमय...पादि। -पणशीकर, ब्रह्मसूत्र-माध्य, प. 252 (2य संस्करण) । 6. व्हलर, एपो, इण्डि., पुस्त. 2, पृ. 272 । 7. देखो अंगुत्तरनिकाय, 3, 74%; महावंग्ग, 6, 31 आदि । 8. अबौद्ध मान्यताओं की धर्म सम्प्रदायों में ही निग्रंथ या जैन हैं जिनकी वृद्धघोष विपक्षी रूप में ब्राह्मणों से भी अधिक कटुशब्दों में निंदा करता है। -नरीमान, संस्कृत बुद्धीज्म, 2 व संस्करण प. 199%; देखो मित्रा, दी संस्कृत बुद्धीस्टिक लिटरेचर हन नेपाल, प. || मी। 9. नाय कुलचंदे, उदाहरण के लिए देखो कल्पसूत्र, सूत्र 110; देखो, वही, सूत्र 20 ग्रादि मी: पाचारांगसूत्र, स्कंध 2 अध्य. 15, सूत्र 4 1 10. वही. स्कंध 1, अध्य. 7 सुत्र 12, और अध्य. 8 सूत्र 9 । ।।. याकोबी, कल्पसूत्र. प्रस्तावना प. 6 । 12. व्हलर, इग्डि. ऐण्टी., पु. 7 पृ. 143 टि.5। इस सुझाव के लिए हम प्रो. याकोबी के ग्राभारी हैं कि गुरु जिसको बौद्धधर्म ग्रन्थों में इस उपाधि से परिचय दिया गया है. महावीर ही है और यह सुझाव नि:सन्देह यथार्थ है। -के. हि. इं., भाग 1, पृ. 160 ।
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