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फिर बौद्धशास्त्रों को जब देखा जाता है तो सामंजफलमुत्त नाम के प्राचीन सिहली शास्त्र में निगठनातपुत्त की मृत्यु पावा में होने का उल्लेख हमें मिल जाता है। निगंठों के सिद्धांतों का बौद्धसूत्रों में विशेष रूप से वर्णन मिलने से जैनों धीर निमंठों की प्रभेद सिद्ध हो जाती है। निगठनातपुत सर्व वस्तु जानता है. पोर देवता है, संपूर्ण ज्ञान और दर्शन का वह दावा करता है, तपश्चर्या से कर्मों का नाश और क्रिया से नए कर्मों का अवरोध वह सिखाता है, जब कर्म समाप्त हो जाते हैं तब सब कुछ समाप्त हो जाता है । ऐसे ऐसे अनेक उल्लेख महावीर और उनके सिद्धांत के विषय में बौद्धों के प्राचीन ग्रन्थ में मिलते हैं परन्तु हम उन सब में से एक का ही अधिक विचार यहां करेंगे क्योंकि वह पार्श्वनाथ तक के इतिहास की खोज के लिए हमें अत्यन्त उपयोगी होने वाला है।
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पार्श्व और महावीर के धर्म का सम्बन्ध - सामंजफलसुत्त में नातपुत्त के सिद्धांतों का उल्लेख इस प्रकार है चातुयाम सवर संतो इसको डा. याकोवो जैन पारिभाषिक शब्द 'चातुर्याम' सम्बन्धी उल्लेख मानते हैं। 'यह विद्वान कहता है कि ' महावीर के पुरोगामी पार्श्वनाथ के सिद्धांत के लिए इसी शब्द का उपयोग किया गया है। ताकि महावीर के सुधारे हुए सिद्धांत 'पंचयाम' धर्म से यह पृथक हो जाए ।"
डा. याकोबी का यह मन्तव्य समझने के लिए हमें जानना श्रावश्यक हैं कि पार्श्वनाथ के मूल धर्म में उनके अनुयायियों के लिए चार महाव्रत नियत थे और वे इस प्रकार थेग्रहिसा, सत्य, अस्तेय (प्रवीर्य और अपरिग्रह (अनावश्यक सर्व वस्तुओं त्याग) सुधारक महावीर ने देखा कि जिस समाज में वे विचरते थे उसमें पार्श्वनाथ के अपरिग्रह व्रत से एक दम पृथक 'ब्रह्मचर्य याने शीलवत' को स्वतन्त्र व्रत रूप बढ़ाना परम आवश्यक है।*
जैनधर्म में महावीर के लिए इस सुधार के सम्बन्ध में डॉ. याकोबी कहता है कि पाश्र्श्वनाथ घोर महावीर के अन्तराल समय में साधु संस्था में चारित्र्य की शिथिलता ग्रा गई हो ऐसी शास्त्र के तर्क से पूर्व सूचना मिलती है। और ऐसा तभी संभव है जब कि हम अन्तिम दो तीर्थंकरों के बीच में पर्याप्त समयान्तर मान लेते है, और पार्श्वनाथ के 250 वर्ष बाद महावीर हुए यह सामान्य दन्तकथा इस मान्यता से एक दम मेल खा जाती है । *
इस प्रकार बौद्ध ग्रन्थों से ही हमें ऐसे ठोस प्रमाण प्राप्त होते हैं कि जो पार्श्वनाथ के जीवन की ऐतिहासिकता के निर्णय करने में हमारी सहायता करते हैं । फिर बोद्धशास्त्रों में नातपुत्त और उनके तत्वज्ञान के सम्बन्ध में वे सब उल्लेख प्राप्त होते देखकर हमें बड़ा ही विचित्र सा लगता है कि प्रतिस्पर्धी धर्म के लिए इतने अधिक खण्डन और उल्लेख होने पर भी जैनों ने अपने शास्त्रों में प्रतिपक्षियों की उपेक्षा की है। इससे यही समझा जाना चाहिए कि जहाँ बौद्ध निग्धों की सम्प्रदायको महत्व की मानते थे वहां निर्गन्ध बंदुधर्म बौद्ध को अपने निर्ग्रन्थों ग्रन्थों में उल्लेख योग्य महत्व का नहीं मानते थे। दोनों धर्मों के साहित्य की इन विचित्रतात्रों से बुद्ध और महावीर के बहुत वर्षों पूर्व से ही जैनधर्म अस्तित्व में था यह स्वतः सिद्ध होता है।
डॉ. यकोबी कहता है कि निर्ग्रन्थों का उल्लेख बौद्ध ने अनेक बार, यहां तक कि पिटकों के प्राचीनतम भाग में भी किया है परन्तु बौद्धों के विजय में स्पष्ट उल्लेख अभी तक तो प्राचीनतम जैन सूत्रों में कही भी मेरे देखने में नहीं आया है. हालांकि उनमें जामाली, गौशाला और ग्रन्य पाखण्डी धर्माचार्यों के विषय में लम्बे-लम्बे कथानक
1. जेड. डी. एम. जी. संख्या 3. पृ. 749 | देखो व्हूलर, दी इन्डियन स्यैक्ट ग्राफ दो जैनाज, पृ. 34 2. अंगुत्तरनिकाय, 3, 74 देखो से सु. ई., पुस्त. 45, प्रस्ता. पू. 15 1 । 3. याकोबी, इण्डि एण्टी. पुस्त. 9 पू. 160 4 व्रतानि... पंचव्रतानि...यादि । 4. व्रतानि... पंचवानि... प्रादि ।
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देखो कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका, प्. 3 ।
5. याकोबी. से. ब्र. ई., पूत 45 प. 122 123 1
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