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के सिवाय उसके शिलालेखों में बौद्धों का खास कुछ भी नहीं है।" 'धर्म में जो केवल बौद्धों को ही लागू हो ऐसा भी नहीं होता है' ऐसा कहते हुए सेनार्ट भी इस प्रकार कहता है कि 'मेरी राय में हमारे स्मारक (अशोक के लेख) बौद्धधर्म की उस स्थिति के साक्षी हैं कि जो परवतीं काल में विकास प्राप्त [ धर्म से भावप्रवणरूपे भिन्न है ।' यह आधार विहीन कल्पना ही है । परन्तु ऐसा ही विरोध हुल्ट्ज ने भी बताया है। वह कहता है कि उसकी सब नैतिक घोषणाएं 'उसे बौद्ध सुधारक के रूप में बताती ही नहीं हैं; फिर भी 'यदि हम जिसे वह अपना धर्म कहता है इसकी परीक्षा करने का मन करे तो मालूम होता है कि उसका धर्म उस बौद्ध नैतिकता के चित्र से एक दम मिलता हुआ है कि जो धम्मपद के सुन्दर संग्रह में सुरक्षित है । ' उन्हीं वक्तव्यों के अनुरूप उद्भव हुए हैं कि जिनके करनेवाले प्रशोक को बौद्धधर्म का प्रचारक कहते हैं ।'
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सेनार्ट और हुल्ट्ज दोनों ही के ये वक्तव्य
भिन्न भिन्न विद्वानों की दृष्टि से अशोक के प्राशा-स्तम्भों और शिलालेखों को देखते हुए भी कहा जा सकता है कि तथ्यों की दृष्टि से वे यह कुछ भी नहीं कहते हैं कि अशोक वौद्ध ही था अथवा हो गया था। अब हम उसके लेखे ही की निरीक्षा इस दृष्टि से करेंगे कि उस पर निर्ग्रन्थ सिद्धांत का कहां तक प्रभाव पड़ा था। कोई भी ऐसा देश नहीं है, प्रशोक कहता है, कि 'जहां दो वर्ग याने ब्राह्मण और श्रमण नहीं हों। योनस देश ही इसका अपवाद 1'5 परन्तु ये 'भ्रमण' कौन थे ? उन्हें बौद्ध भिक्षु कहता है हालांकि इसका कोई भी कारण नहीं है कि इसका इतना संकुचित धर्म लगाया जाए या व्याख्या की जाए।
'श्रमण' का सामान्य अर्थ तपस्वी या भिक्षु है । इस शब्द को जैन बौद्धों के पूर्व से ही प्रयोग करते आए हैं । ग्रीक ग्रन्थों में भी यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । और इसका समर्थन अन्य विद्वानों द्वारा भी, जैसा कि पहले ही दिखाया जा चुका है, किया गया हैं। जैनों की एक प्राचीन प्रतिज्ञा या व्रत इस प्रकार का है : "मैं बारहवें अतिथि संविभाग व्रत की प्रतिज्ञा स्वीकार करता हूं जिससे में भ्रमण या निर्ग्रन्थ को उन्हें कल्प्य चौदह निर्दोष वस्तुएं देने की प्रतिज्ञा करता हूं।" यदि आदि । कल्पसूत्र भी इसी प्रकार 'आधुनिक निर्ग्रन्थ श्रमण' का ही वर्णन करता है ।" दक्षिण के प्रथम दिगम्बर ग्रंथकर्ता कुन्दकुन्दाचार्य भी अपनी सम्प्रदाय के साधुओं के लिए इसी शब्द का प्रयोग करते हैं। परन्तु सबसे विशिष्ट बात तो यह है कि बौद्ध स्वयम् निर्ग्रन्दों को 'श्रमण' शब्द से वर्णन करते हैं क्योंकि अंगुत्तरनिकाय में लिखा है कि "अरे विशाख... । एक श्रमणों का वर्ग है कि जो निर्ग्रन्थ कहा जाता है ।" बौद्धों से पूर्व का ही यह जैनों का प्रचलित शब्द है यह इस बात से भी निश्चय पूर्वक प्रमाणित हो जाता है कि बौद्ध अपने को 'शाक्यपुत्रीय समरण' कहते हुए अपने को 'निग्गंठ समरणों' से जो कि पहले से ही चले आ रहे थे, अलग घोषित करते थे ।
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अशोक बौद्धों के ही विषय में जब कहता है तो संघ शब्द का ही वह उपयोग करता है । स्तम्भ प्राशा 7वीं में वह कहता है कि “कितने ही महामन्त्रों को संघ के काम की व्यवस्था के लिए में आज्ञा देता हूं, अन्य कितनों
1. कर्न, मैन्युअल आफ इण्डियन बुद्धीध्म, पृ. 112 1 2. सेनार्ट इण्डि एण्टी, पुस्त. 20, पृ. 260, 264-2651
3.
हुल्ट्ज, वही, प्रस्तावना प. 49 ।
4. देखो हेरास वही, पृ. 201
,
5. हुल्ट्ज, वही, पृ. 47 (जे) ।
7. देखो राइस, ल्यूइस, वही. पृ. 9. याकोबी, सेबुई पुस्त. 22, पृ.
'
11. देखो याकोबी, सेबुई, पुस्त. 45, प्रस्ता. पृ. 17। कामता प्रसाद जैन का “दी जैन रेफरेंसेज इन बुद्धीस्ट लिटरेचर" लेख जो इंहिस्टोरिकल त्रैमासिक अंक 2, पृ. 698-709 में प्रकाशित भी देखो ।
6. हुल्ट्ज, वही, प्रस्तावना पृ. 1 ।
8. श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 218 ।
297 1 10. देवो भण्डारकर वही, पृ. 99 100 1
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12. देखो हिस डेविस, वही पू. 143
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