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ही को ब्राह्मण तथा प्राजीवकों के काम की व्यवस्था का काम देता हं, अन्य को निर्ग्रन्थों के काम की व्यवस्था के लिए आज्ञा देता हं और शेष को...अन्य दार्शनिकों की व्यवस्था के लिए सूचना करता हूं।" __ ब्राह्मण, आजीवक, निर्ग्रन्थ आदि सब का इस प्रकार स्वतन्त्र उल्लेख यही बताता है कि ये सब संघ की
में एकदम भिन्न थे। अन्य स्थलों पर श्रमणों के ब्राह्मणों के साथ ही गिना दिया गया है। उपयुक्त आज्ञा में श्रमरणों का प्रयोग इसी प्रकार समझाया जा सकता है कि यहां प्राजीवक और निर्ग्रन्थ शब्द प्रयुक्त हुए हैं कि जो दोनों ही, जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, संघ से पृथक हैं।
वस्तुत: जैन और अन्य धर्मों के प्रति अशोक का झकाव इन शब्दों से स्पष्टतया जाना जा सकता है कि “सब मनुष्य मेरे बालक हैं। जैसा में अपने निजी बालकों के लिए चाहता हूं कि उन्हें इहलोक और परलोक दोनों ही का कल्याण प्राप्त हो, वैसे ही में पर्व मनुष्यों को वह प्राप्त हो, ऐसा चाहता हूं । इसी प्रकार और भी स्पष्ट शब्दों में वह कहता है कि "मैं उसी रीति से सब वर्षों और वर्गों का ध्यान रखता हूं। और सभी धर्म-सम्प्रदाय मुझ से अनेक प्रकार का मान-सम्मान प्राप्त कर चुके हैं।"
उत्तर और दक्षिण में "बौद्धों, ब्राह्मणों, आजीवकों और निर्ग्रन्थों एवम् अन्यों की सार-सम्हाल के लिए" अशोक धर्म-महामात्रों की नियुक्तियां की थी। उसकी असम्प्रदायिक नीति निम्न शब्दों में स्पष्ट रूप से प्रकट होती है :--
__ महाराज कहते हैं कि “जो कोई अपनी सम्प्रदाय के लिए अन्धश्रद्धा से अभिमान करता है और दूसरे की सम्प्रदाय की निंदा करता है वह अपनी सम्प्रदाय की निंदा करता है वह अपनी सम्प्रदाय की बड़ी से बड़ हानि करता है।"
बराबर की गुफा के शिलालेखों की विवेचना करते हुए स्मिथ कहता है कि "ये सब लेख महत्व के हैं और वे स्पष्ट सिद्ध करते हैं कि अशोक की हादिक इच्छा और आज्ञा सब सम्प्रदायों को मान देने की थी। उसके अन्य शिलालेखों के लिए भी यही कहा जा सकता है। हालांकि उसके उदार शासन काल में उत्तर-भारत में जैनधर्म की स्थिति की कोई सीधी साक्षी उपलब्ध नहीं है फिर भी उपरोक्त वक्तव्य और अवलोकन चन्द्रगुप्त के महान् उत्तराधिकारी का उस धर्म के प्रति जिसे उसने, पहले नहीं तो भी गौरवशील राज्य के सायंकाल में स्वीकार कर लिया था, रूख प्रदर्शित करने को पर्याप्त है।
इस दन्तकथा की परंपरागत असर का अनुमान अशोक के पौत्र सम्प्रति के आर्य सूहस्तिन द्वारा जैनी बनाए जाने की बात से समर्थित होता है। सम्प्रति की जैनधर्म के प्रति भक्ति और श्रद्धा का विचार करने के
1. दिल्ली-तोपड़ा स्तम्भ आज्ञा लेख 7; हुल्ट्ज, वही, पृ 136 (जैड) । 2. देखो पर्वत-प्राज्ञालेख, (3,डी), (4, सी), (9 जी), (11, सी), (13, जी), और स्तम्भ प्राज्ञालेख 7 (एच एच);
देखो हल्टज, वही, प्रस्ता. पृ. 1 । 3. भिन्न-भिन्न पहाड़ी आज्ञापत्र-जूनागढ़, 1 (एफ. जी.), 2 (ए. एफ); देखो हुल्ट्ज , वही, पृ. 114-7 । 4. दिल्ली-टोपड़ा स्तम्भ आज्ञालेख 6 (डी. ई.), देखो हल्टज. वही, प. 129; प्रस्ता. प. 48 । 5. वही, प्रस्तावना पृ. 40 । 6 गिरनार पर्वत आज्ञालेख, 12 (एच); देखो हल्ट्ज, वही, पृ. 21 । 7. स्मिथ, वही, पृ. 177 । देखो हुल्टज, वही, प्रस्तावना पृ. 48 । 8. देखो याकोबी, परिशिष्टपर्वन् , 4 69; भण्डारकर, वही, पृ. 135 ।
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