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देवों का अस्तित्व, कम से कम पहले पहले तो,अस्वीकार किए बिना ही जैनधर्म प्रत्येक जिन को उनसे उच्च मानता है और उनको परिपूर्ण संत की अपेक्षा न्यून कोटि का गिनता है। जैसे प्राथमिक ईसाईधर्म भी यहदीधर्म से पृथक था वैसे ही जैनधर्म भी ब्राह्मणधर्म से यह अस्वीकार करने में शास्त्रज्ञान एवम् बाह्य प्राचार ही पवित्रता का सूचक हैं और यह मानने में कि नम्रता, हृदय और जीवन की पवित्रता, दया, प्रत्येक जीव के प्रति नि:स्वार्थ प्रेम प्रावश्यक है, जुदा पड़ता है। परन्तु सर्वतोपरि अन्तर इसका जातिभेद सम्बन्धी विचार है । महावीर न तो जातिभेद का विरोध करते हैं और न सब जातियों को एक समान करने का ही वे प्रयत्न करते हैं। पक्षान्तर में वे तो यह प्रतिपादन करते हैं कि पूर्वजन्मकृत सुकृत्यों अथवा पापों के परिणाम स्वरूप उच्च अथवा नीच जाति या कुल में जीव जन्म लेता है, और साथ यह भी कि पवित्र और प्रेममय जीवन से, आध्यात्मिकता प्राप्त करने से प्रत्येक जीव सर्वोच्च मोक्ष भी एक दम प्राप्त कर सकता है । इस मोक्षप्राप्ति में जाति उन्हें कोई बाधक नहीं लगती है । वे तो चाण्डाल में भी समान ही आत्मा देखते हैं। जीदन के सुख-दुःख सब को समान ही भुगतने पड़ते हैं। उनका धर्म सब जीवों के प्रति दया का धर्म है । इसलिए महावीर ने जो अनन्यतम क्षेमंकर परिवर्तन किया वह या जातिभेद को अवस्थाधीन और अप्रधान सिद्ध करना एवम् यह बताना कि प्राध्यात्मिक व्यक्ति के लिए शांति प्रथा का बन्धन तोड़ना बिल्कुल सहज है ।
महावीर का जीवन:
जैनधर्म का सामान्य स्वरूप यही है । उसका यह स्वरूप लक्षण रूप में एकदम रुचिकर है। प्राज्ञा की अपेक्षा उपदेश को ही वह अपना साधन मानता हैं । महावीर का विचार करने पर हम देखते हैं कि बुद्ध की भांति वें भी एक अभिजात्य क्षत्रियवश में जन्मे थे। सच तो यह है कि जैन मान्यता हो ऐसी रही है कि जिन याने तीर्थकर क्षत्रिय अथवा उस जैसे कुल में ही सदा जन्म लेते हैं। परन्तु महावीर के सम्बन्ध में ऐसा हुआ कि विगत जन्मों के कितने ही कर्मों के कारण वे ऋषभदत्त ब्राह्मण की भार्या देवानन्दा ब्राह्मणी की कोख में भरण
1. देवाधिदेवं सर्वज्ञ श्री वीरं प्ररिणदध्महे ... हेमचन्द्र, परिशिष्टपर्वन्, सर्ग 1, श्लो. 2; ...जिनेन्द्रे सुरासुरेन्द्रसंपूज्य:...हरिभद्र, वही, श्लो. 45-46 । 2. केशलु धन से ही कोई श्रमण नहीं हो जाता है, ॐ के पवित्र उच्चारण से ही न कोई ब्राह्मण हो जाता है और न वन निवास से हो कोई मुनि, कुशधास और वल्कल पहनने से कोई तपस्वी । याकोबी सेबूई, 40 । 3. सोवागकुलसंमूग्रो...हरि एसबलो...आदि । उत्तराध्ययन, अध्या. 12 शाथा । । हरि 140 । केशीबल श्वपच । (चाण्डाल) कुल में जन्मा था वह गुग्गी और भिक्षु था ।...ग्रादि । याकोबी, वही, पृ. 50। 4. न तो ऐसा कभी हुआ है, न होता है, नहीं ऐसा होना सम्भव है कि प्रहन्...दरिद्रकुल...भिक्ष कुल या ब्राह्मण कुल में जन्म लेते हैं किन्तु अर्हत्...राजन्यकुल...ईक्ष्वाकुकुल...वा अन्य ऐसे ही उत्तम कुल, दोनों ही अोर से विशुद्ध जाति या वंश में जन्म लेते हैं । याकोबी से बुई, पुस्त. 22, पृ. 225। 5. जैनों की मान्यतानुसार हम इस जन्म में जो भी हैं, वह सब पूर्व जन्मों में किएको के अन्तिम परिणाम स्वरूप है कर्म सब सामान्यतया अविनाशी, अवर्णनीय, प्रमा होते हैं जब तक कि भोग लिये नहीं जावे । महावीर ने नाम और गोत्र कर्म अपने पर्व के दृश्य 27 भवों में से किसी एक में बांधे थे। उन्होंने अन्तिम तीर्थकर भव में जन्म लेने के पूर्व में बिताए थे। उसी कर्म के कारण उन्हें पहले ब्राह्मणवंश में जन्म लेना पड़ा तन्च नीचर्गोत्र भगवता स्थलसप्तविंशतिभवापक्षेया तृतीयभवे बद्ध। कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका, पृ. 26 । देखो याकोबी बही, पृ. 190-191।
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