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________________ [ 25 रूप में पहले प्राए । सब पैगाम्बरों के जीवन की भांति महावीर के जीवन के सम्बन्ध में भी यह लोककथा प्रिय कथा कही जाती है कि ज्योंही राजा और देवों के स्वामी इन्द्र (शक) ने यह बात जानी तो उसने महावीर के भ्र गण को देवानन्दा की कोख से ज्ञातृ क्षत्रियवंशी काश्यप गोत्रीय क्षत्री राजसिद्धार्थ की पत्नि त्रिशला क्षत्रियाणी की कोख में बदल देने की योजना की। इस प्रकार यद्यपि यह एक अजीब सी ही बात है फिर भी महावीर चाहे वह चमत्कार के कारण ही हो, शेष में क्षत्रियवंश के ही थे यही हमें कहना होगा। भ्रूण परिवर्तनः पाश्चर्य की बात तो यह है कि इस दन्तकथा को शिल्प में भी उत्कीगित कर दिया गया है । मथुरा के जनशिल्प के कुछ नमूनों में इसकी तादृश साक्षी प्राप्त है और यह निश्चय ही आश्चर्यजनक है । परन्तु साथ ही यह भी सिद्ध करता है कि यह दन्तकथा इसवी युग के प्रारम्भिक समय की ऐतिहासिक तो अवश्य ही है और इसलिए ऐसा भी कहने में कोई आपत्ति नहीं कि महावीर के जीवन के साथ अथवा उस समय की किसी न किसी सामाजिक परिस्थिति के साथ इसका कुछ न कुछ सम्बन्ध अवश्य होना चाहिए। हमें कल्पसूत्र से मालम होता है कि इन्द्र ने अपनी प्राज्ञा के परिपालनार्थ हरिणगमेशी को भेजा था। इस हरिणग मेशी को सामान्यतः "हरि को नेगमेशी' याने इन्द्र का सेवक कहा जाता है। डॉ. बहूलर कहता है कि "वह जैन शिल्प जिसमें नेगमेश, एक छोटे रूप में तीर्थकर, और एक छोटे शिशु सहित एक स्त्री दिखाए गए हैं, देवानन्दा और त्रिशला के भ्र ण-परिवर्तन सम्बन्धी उस प्रसिद्ध दन्तकथा का ही सूचन करता हा माना जा सकता है कि जिसमें इस देव ने प्रमुख भाग लिया था।" प्रत्यक्षत: यह दन्तकथा विचित्र ही मालूम होती है । परन्तु इतना तो हमें स्वीकार करना ही होगा कि अन्य धर्मों में अपने देवों के विषय में इससे भी अधिक विचित्र और काल्पनिक कथाएं कही गई हैं । हमें अभिभूत करने वाली जो बात इसमें है वह इसका रूप नहीं अपितु इसके पीछे रही हुई भावना है। जैनों के इस मानसिक भाव का यह अभिप्राय हो सकता है कि उनका साधूधर्म मूलतः क्षत्रियों के लिए हो योजित था । परन्तु ऐसा भाव दीख तो नहीं पड़ता है क्योंकि महावीर के समय से लेकर आज तक के इतिहास को टटोलने पर हम देखते हैं धर्म की बड़ी से बड़ी और सुप्रसिद्ध व्यक्तियों में से कुछ ब्राह्मण भी थीं। महावीर के गणधरों में इन्द्रभूति से लेकर अन्तिम ग्यारहवें गणधर तक सभी ब्राह्मण थे। उनके बाद के जैन इतिहास में होने वाले सिद्धसेन, हरिभद्रसूरि प्रादि प्रसिद्ध जैनाचार्य और विद्वान भी ब्राह्मण थे । 1. 82 दिवस पश्चात् गर्भ को हटाया गया था । समगे भगवं महावीरे...वासीह...गन्भत्ताए साहरिए... कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, पृ. 35, 36 1 2. याकोबी, वही पृ. 223 आदि। 3. व्हलर, वही. पृ. 316 । 4. वही, पृ. 317 ! देखो मथुरा स्कल्पचर्स प्लेट 2; आ. स. रि., सं. 20, प्लेट 4 चित्र 2-5 । 5. इन्द्रभूति के सम्बन्ध में ऐसी दन्तकथा है कि अपने गुरु के प्रति उसका असीम प्रेम था । महावीर के निर्वाण समय में वह वहां उपस्थिति नहीं था। लौटने पर अपने गुरु के अकस्मात् निर्वाण की बात सुनकर वह शोकाभिषूत हो गया । उसे ज्ञान हुआ कि अन्तिम शेष वंधन जिसके कारण वह संसार से बंधा हुआ था वह राग था जो कि गुरु के प्रति वह अब भी दिख रहा है । इसलिए उसने उस बन्धन को काट दिया और "छिण्णपियबंधने" होते ही वह केवल ज्ञान की स्थिति को पहुंच गया । महावीर के निर्वाण के एक महीने बाद ही उसकी भी मृत्यु हो गई थी। याकोबी, कल्पसूत्र, प्रस्तावना, पृ. 1। 6. पिद्धसेन दिवाकर, ब्राह्मण मंत्री का पुत्र...हरिभद्र पूर्व में विद्वान ब्राह्मण था...स्टीवन्स न (श्रीमती वही, पृ76, 80 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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