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ऐसा संभव हो कि बुद्धिवाद के युग के प्रारम्भ में जब ब्राह्मण अपनी प्रतिष्ठा के प्रायः शिखर पर थे और जब अन्य जातियों में ब्राह्मण दासता के विरुद्ध अधिकाधिक जागृति हो रही थी तभी जैनों की इस मान्यता ने भी निश्चित स्पष्ट रुप लिया होगा। बौद्धों में भी ऐसे ही कुछ विचार थे जैसा कि उनके भिक्षुसंघ में दिए क्षत्रियों के से प्रतीत होता है। वाराणसी के एक प्रवचन में बुद्ध स्वयम् कहते हैं कि "धर्म के लिए कुलीन युवक प्रधानस्व संसार का सर्वथा त्याग कर देते हैं प्रौर गृह रहिन जीवनावस्था वे स्त्रीकार करते हैं ।" 1
ऐसा होते हुए भी स्मरण रखना चाहिए कि जैनों को इस बात से कोई भी एतराज नहीं था कि ब्राह्मण लोग जैन गुरू बन कर जैनसंघ में उच्च पद प्राप्त नहीं करें। परन्तु उनने उनके विषय में इतना ही भेद किया और कहा है कि ब्राह्मण जन्म केवली बन मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है, परन्तु तीर्थंकर याने धर्मप्रवर्तक वह कभी नहीं बन सकता है । कदाचित् यह भेद उस समय के लोगों की इस सामान्य मान्यता को कि सब आध्यात्मिक कार्यों में ब्राह्मण ही सर्वोपरि होने के अधिकारी हो सकते हैं, मिटा देने के लिए ही कियागया हो । सप्रमाण साक्षियों से हमें ज्ञात हैं कि पूर्व काल में धर्म और अनुष्ठानिक मामलों में ब्राह्मण ही एकाधिकारी रहें या सर्वसत्ता भोगें, ऐसा कुछ भी नहीं । हीनकुल लोगों के अपने ज्ञान और सद्गुणों से पुरोहिताई में वस्तुतः प्रविष्टि होने के अनेक उदाहरण भी उद्घृत किए गए हैं । धार्मिक ज्ञान का इजारा केवल ब्राह्मणों का ही नहीं था इतना ही नहीं अपितु बहुत बार शास्त्रज्ञान प्राप्त करने के लिए क्षत्रिय राजों के नम्र शिष्य भी बने ऐसे भी उदाहरण हैं । 2 श्री टीले कहता है कि 'उनने अपनी पृथक जाति अभी तक नहीं बनाई वो क्योंकि राजा और राजा का पुत्र भी पवित्र गायक रूप में प्रसिद्ध थे और धार्मिक क्रियाएं वे करते थे यद्यपि अनेक प्रतिष्ठित लोगों की भांति वे भी बहुत करके पुरोहित भी रखते थे ।
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स्थिति जैसी भी हो परन्तु जैसा कि हम पहले ही कह ग्राए हैं, उत्तरकालीन इतिहास में इगिते प्रथवा आडम्बरे, ब्राह्मण लोग समाज के यथार्थ हितेषी और प्राध्यात्मिक गुरू माने जाने लग गए थे, हालांकि 'किसी भी अवस्था में प्राचीन ऋचाओं में तो ब्राह्मण और ब्राह्मणपुत्र का फिर भी कभी कभी उल्लेख मिल जाता है, परन्तु बाद की ऋचाओं में तो इनका उल्लेख बहुत है ।" इसलिए ब्राह्मणों को अपनी स्वम्भू सर्वोपरि सत्ता के शिखर से गिराने और उनके कितने ही अधिकार छीन लेने के लिए क्षत्रिय एवं अन्य जातियां निःसंदेह उकसित हो गई होंगी ।'
महावीर के जीवन के इस प्रसंग विशेष की व्याख्या करने में डा. याकोबी ने कुछ कष्टकल्पित अनुमान लगाए हैं। वे इस परिकल्पना पर चलते हैं कि सिद्धार्थ महावीर के पिता के दो रानियां थी एक क्षत्रियाणी त्रिशला मौर दूसरी ब्राह्मणी देवानन्दा। फिर वे मान लेते हैं कि महावीर वास्तव में देवानन्दा की कोल से ही जन्मे थे,
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1. हिम डेविड्स और बोल्डनवर्ग से. बु. ई., पुस्तक 13, पृ. 931
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2. द वही . 264 1
दत्त,
3. टीले, वही, पृ. 116 जातियों के उद्भव के पूर्व और उस अन्तरिम काल में भी जब तक कि कार्यकलाप अचल प्रतिष्ठित नहीं हो गए थे, राजा स्वयम् के और अपनी प्रजा के हितार्थ अन्य की सहायता बिना ही यज्ञ कर सकता था । ला, न. ना. वही. पृ. 41 1 4 'उन्हें राजों से कड़ा विरोध का सामना बहुत वार करना पड़ा था । परन्तु सामान्यतया वे अपने लक्ष्य में प्रौपरव एवम् अधिकार से अथवा चालाकी मे सफल हो ही जाते थे।' टीले, वही, पृ. 121 5. वही, पृ. 115
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