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सामान्य दृष्टि से जैनधर्म:
ऐसे बदलते हुए विचार-प्रवाह में महावीर हुए और जगत के रहस्य का आकलन करने के लिये उनने अपना ऐसा मार्ग खोजा कि जिसमें इहलोक और परलोक के सुख का भविष्य मनुष्य के निजी हाथों में ही रहा और जिसने प्रजा को स्वाश्रयी बनाया। जब उनने उपदेश देना प्रारम्भ किया तब प्रजा तो तैयार थी ही उनका प्राध्यात्मवाद प्रजा को समझ में आता था इसलिय वह प्रजा को मान्य भी हो गया था। शनैः शनैः ब्राह्मण भी उन्हें एक महान् गुरू मानने लग गए थे। बुद्धिमान ब्राह्मण भी समय समय पर जैन और बौद्धधर्म में अपनी श्रद्धा से और अपनी प्रतिष्ठा के लिए आने लगे और इनने जैनधर्म की साहित्यिक प्रतिष्ठा कायम रखने में अपना पूरा योगदान दिया था ।"
जैनधर्म शनैः शनैः गरीब और पतित वर्गों में भी फैला क्योंकि जाति के विशेष स्वत्वों का वह प्रखर विरोध करता था। जैनधर्म मनुष्य की समानता का धर्म था । महावीर की सत्य शील प्रात्मा ने मनुष्य-मनुष्य के अघटित भेदों के विरुद्ध क्रांति जगाई और उनका दयालु हृदय दुःखी, गरीब और असहाय लोगों की सहायता करने को तत्पर बना। पवित्र जीवन और निर्दोष परोपकारी चरित्र की सुन्दरता में ही मनुष्य की सम्पूर्णता है और ऐसी व्यक्ति को पृथ्वी स्वर्गतुल्य है ऐसा उनके मनोमन्दिर में प्रकाशहुया और एक पैगम्बर एवम् सुधारक की भांति सम्पूर्ण आत्म विश्वास के साथ उनने धर्म के तत्वरूप में ये बातें सर्व साधारगा के सामने रखीं। उनकी विश्वविस्तीर्ण दया ने दुःखी हो रहे जगत को आत्मसुधार और पवित्र जीवन का सन्देश पहुंचाने की प्रेरणा की और उनने गरीब तथा पतित जातियों में विश्वबंधुत्व की भावना अनुशीलन करने और उसके द्वारा उनके दुःखों का अन्त लाने को आकर्षित किया । ब्राह्मण हो अथवा शूद्र, उच्च हो अथवा नीच, सभी उनकी दृष्टि में समान थे । पवित्र जीवन से प्रत्येक जीव अपना मोक्ष समान रीति से साध सकता है और इसलिए अपना सर्वमान्य प्रेमधर्म स्वीकार करने को उनने सबको आमंत्रित किया। पूर्व समय में योरोप में जैसे ईसाई धर्म फैला था वैसे ही धीरे-धीरे भारतवर्ष में जैनधर्म भी प्रचार पाने लगा और वह भी यहां तक कि श्रेरिणक, कुरिणक, चन्द्रगुप्त, सम्प्रति, खारवेल और अन्य अनेक राजौ आदि ने भारतवर्ष के हिन्दूराज्य की प्रारम्भिक विख्यात शक्तियों में जैनधर्म को स्वीकार किया।
ब्रहमणधर्म की भांति ही जैनधर्म का प्राधार भी पुनर्जन्म का सिद्धांत ही है और पुनर्जन्म की अनंत परम्परा समक्ति प्राप्ति ही उसका ध्येय है। परन्त इस मुक्ति या मोक्ष के लिए ब्राह्मणधर्म के तप और त्याग ही वह पर्याप्त नहीं मानता है। इसका ध्येय ब्रह्म के साथ एकता साधना नहीं अपितु निर्वाण याने समस्त शारीरिक प्राकारो और क्रियानों से भी एकदम मूक्ति यानि छूटना है।
1. प्रभू: अपापापूर्यो...जगाम, तत्र...बहबो ब्राह्मणाः मिलिताः...चतुश्चत्वारिंशब्छतानि द्विजा प्रवजिताः । कल्पसूत्र. सुबोधिका टीका, पृ. 112, 118। 2. वैद्य चि वि., हिस्ट्री ग्राफ मेडीवल हिन्द इण्डिया, भाग 3, प. 4061 3. सबसत्वानां हितमुखायास्तु (सर्व प्राणियों को सुख और हित के लिए हो) ब्हलर, एपी. इण्डि., पुस्तक 2, प. 203, 204, शिलालेख सं 18 । 4. 'वह जिसके लिए इस संसार में किसी भी प्रकार का कोई बन्धन नहीं है...ग्रादि, जन्म लेने का मार्ग उसने छोड़ दिया है।' याकोबी, से. बु. ई., पुस्त. 22, पृ. 213 । 5. प्राचीन भारत में संसार सम्बन्धी प्रमुख दो सिद्धांत थे । एक तो वह जो वेदान्त के रूप में प्रसिद्ध हुआ और जो यह सिखाता है कि ब्रह्म और आत्म एक ही है और बाह्य जगत एक माया है । इलियट, वही, 1 पृ. 10 । 6. प्रात्यन्तिको वियोगस्तु देहादेर्मोक्ष उच्यते...हरिभद्र, षड्दर्शनसमुच्चय, श्लो. 52 ।
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