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ब्राह्मणों के प्रति तिरस्कार का प्रभाव ----
परन्तु इस महान् भारतीय क्रांति के स्पष्टीकरण में हम ब्राह्मण विरोधी किसी प्रकार की वृत्ति की खोज करने को प्रातुर नहीं हैं । यह तो 'वीरगाथा-युग की प्रारम्भ में व्याप्त विचारों के सामान्य उभार का ही परिणाम था।। हमें उसे 'ब्राह्मणों के जातिभेद के प्रति क्षत्रियों के विरोध का परिणाम मात्र नहीं मान लेना चाहिए क्योंकि 'ब्राह्मणधर्म के सनातन गढ़ के बाहर नवीन विश्वासों और सिद्धांतों की वृद्धि के लिए भूमि अच्छी तरह तैयार हो गई थी। इसके सिवा विकास का मूल जिस पर किसी भी धर्म का इतिहास विस्तार पाता है, ऐसे सिद्धांत पर टिका रहता है कि धर्म में होने वाले सब परिवर्तन और नवरूप चाहे वे विषय दृष्टि से उसकी उन्नति या अवनीति रूप ही दिखते हों, स्वाभाविक विकास के परिणाम ही होते हैं और उन्हीं से उनका समाधान भी मिल जाता है।
अपने निर्दिष्ट समय की ओर आने पर हम देखते हैं कि इस परिस्थिति को भारतीय विचारों के इतिहास और भारतीय जीवन के इकाव में हुए शांत परिवर्तन से पुष्टि मिली थी। श्री कुन्ते कहते हैं कि 'गौतमबुद्ध वेद की सामाजिक, राजकीय और धार्मिक प्रवृत्तियों का व्यवस्थित विरोध करने में सफल हए उससे बहुत पूर्व से ही वेद की सत्ता में शंका उत्पन्न करने की वृत्ति देखने में पाती थी। इस प्रकार की मान्यता प्रान्य विद्वानों की भी है । 'बौद्ध और जैन धर्म को' डा. याकोबी कहता है कि 'बाह्मणधर्म की धार्मिक क्रियानों से उद्भुत परिणाम ही माना जाना चाहिए कि जो प्राकस्मिक सुधारों से नहीं परन्तु लम्बे समय से चली आती धार्मिक प्रवृत्तियों से प्रेरित हुए थे। यदि हम ऐसा कहें तो अनुचित नहीं होगा कि भविष्य में होने वाले ऐसे परिवर्तन की गूज उपनिषदों में कि जिनमें सब दिशानों से नवीन प्रणाली का पूर्व सूचन है, स्पष्ट सुनाई पड़ती है।' इस नवीन पद्धति के अग्रदूतों ने 'डा. दासगुप्ता कहता है कि, बहुत करके उपनिषदों से और याज्ञिक धर्म से ही प्रेरणा लेकर अपनी स्वतन्त्र बुद्धि के जोर से अपनी प्रणालियां निर्मित की थी। लोगों के मन में चल रहे ऐसे परिवर्तन का समय श्री दत्त ई. पू. ग्यारहवीं सदी अर्थात् हम जिस समय का यहां विचार कर रहे हैं उससे पांच सदी पूर्व जितना प्राचीन मानते हैं। उनके अनुसार 'उत्साही और विचारकर हिन्दुनों ने ब्राह्माणों के जंजाल भरे क्रिया काण्डों से आगे जाने का साहस किया और प्रात्मा तथा उसके निर्माता के गढ़ रहस्यों की पूछताछ या खोज करने लगे थे।
तब हिन्दूधर्म की यह स्थिति थी। इसलिए स्वाभाविकतया जैनधर्म भी उसके बुरे प्रभावों से बचा रह नहीं सकता था । हमने देख ही लिया है कि महावीर को उनके पुरागामी द्वारा प्रस्तुत किए गए चार व्रतों में कितना ही फेरफार करना पड़ा था और इसके फल स्वरूप उनके उपदिष्ट पांचव्रतों का प्रारम्भ हुआ था । समाज की परिस्थिति तब ऐसी थी कि लोग स्वतंत्र और स्वच्छंदी जीवन के लिए मिल सकने वाली थोड़ी सी छूट का भी लाभ लेने से क्वचित ही चूकते और इसलिए महावीर को पार्श्वनाथ के धर्म की प्रत्येक दिशा का विशदीकरण क्यों करना पड़ा था यह स्पष्ट विदित हो जाता है।
1. राधाकृष्णन, वही, भाग 1, पृ. 293 । 2. श्रीनिवासाचारी और प्रायंगर, वही, पृ. 48। 3. फ्रेजर, वही, पृ. 117 । 4. कण्टे, वही, पृ. 407, 408 1 5. याकोबी, से. बु. ई., पुस्तक 22, प्रस्तावना पृ. 32 । 6. दासगुप्ता, वही, भाग 1, प. 210। 7. दत्त,. वही, पृ. 340 । 7. ...250 वर्ष में जो कि उनके निर्वाण और महावीर के अवतरण में बीते, विकार इतना अधिक फैल गया था..., आदि । स्टीवन्सन (श्रीमती), वही, प. 491 8. देखो कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका, पृ. 3; याकोबी से. बु. ई., पुस्तक 45, पृ. 122, 113 ।
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