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लगता था क्योंकि वे अपने को ही इन देवों की कोटि में रख देते थे ।
यज्ञक्रिया के पीछे ऐसी लोकमान्यता थी कि विधिविधान और यज्ञसामग्री के उचित संमिश्रण में ही इच्छित परिणाम उत्पन्न करने की चमत्कारिक शक्ति है जैसे कि वर्षांवरसाना, पुत्र जन्म होना, मत्रु सेना का सम्पूर्ण पराजय यादि यादि मे यज्ञादि नैतिक उन्नति के लिए इतने नहीं अपितु व्यवहारिक सम्पन्नता के साधनों को प्राप्त करने के लिए ही किए जाते थे।"
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इस प्रकार ब्राह्मणों का सामाजिक लक्ष्य धर्माधिकारी की अमर्यादित सत्ता और ज्ञातियों का एकान्त पृथककरण था। ऐसी स्थितिचुस्त समाज में कितने ही उपयोगी धन्ये पाप रूप गिने जाने लगे थे और लोगों को उन लज्जायुक्त धन्धों से जो उन्हें पापस्वरूप जन्म में प्राप्त हुए थे, पीछे हटते भी रोका जाता था। ऊंचे से ऊंचे अधिकार ब्राह्मणों के लिए सुरक्षित रहते और प्रत्यन्त सीमातिक्रांत स्वत्वों के भी वे ही पात्र होते थे। यह सब यहां तक चलता रहा था कि राजा की अमर्यादित सत्ता भी उनकी सेवा के लिए ही मानी जाने लगी थी। प्राचीन भारतीयों का धार्मिक झुकाव ही ऐसा था कि प्रत्यन्त प्राचीन काल से जिसका कि हमें कुछ भी पता है, राज्य के धर्माधिकारी प्रमुख व्यक्ति माने जाने लद गए थे। सामाजिक व्यवस्था में स्त्री की स्थिति नगण्य हो गई थी और शूद्र तो एकदम तुच्छ व तिरस्कृत ही माने जाते थे । ' "
महावीर और बौद्ध के आविर्भाव से धर्माधिकारी मंडलों की सत्ता और कट्टर जातिवाद का प्रन्तःस्वाभाविक ही था कि समाज की यह परिस्थिति लम्बी अवधि तक निभ नहीं सकती थी । और इस स्थिति का एक और महावीर एवं दूसरी पोर शाक्यपुत्र बुद्ध के धागमन से प्रन्त था ही गया
'फ्रांस का विप्लव' दत्त
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लिखता है कि मुख्यतः दो कारणों से हुआ था याने राजाओं के प्रत्याचारों मे वेत्ताओं की बौद्धिक प्रक्रिया से भारत का बौद्ध विप्लव इससे भी स्पष्ट परन्तु ऐ के प्रत्याचारों से लोग विप्लव के उन्मुक्त कर दिया।"
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पठारहवीं सदी के तत्वकारणों से या ब्राह्मणधर्म
लिए श्रातुर तो थे ही, और तत्ववेत्ताओं के कार्यों ने ऐसे विप्लव का मार्ग एकदम
डा. हास किस तो कुछ धागे भी बढ़ जाता है और जिन लोगों ने ऐसे विचारों को सर्वप्रथम उत्पन्न किया उनके मानस को ही इसका श्रेय देता है वह कहता है कि "बहुतांश में जैन और बौद्धधर्म की विजय तात्कालिक राजकीय प्रवृत्ति की ही प्रभारी है। पूर्वदेश के राजा पश्चिमी धर्म से प्रसन्तुष्ठ थे वे उसे फेंक देने में प्रसन्न थे... पूर्व की अपेक्षा पश्चिम अधिक रूढ़िग्रस्त था। वह अपने मान्य ग्राचारों का केन्द्र था और पूर्व मात्र उनका पालक पिता था।"
1. उनको ही 'देवी और सम्मान का सर्वोच् स्थान प्राप्त था। देखो मेक्रिष्टल, वही और वही स्थान |
2. दासगुप्ता, वही, पृ. 208 देखो नाहा, न. ना. वही, पृ. 39
3. राष्ट्र के निर्देशक और राज्य के सलाहकार वे देव द्वारा नियुक्त हुए थे, परन्तु वे स्वयं राजा नहीं बन सकते थे । लाहान. ना., वही पृ: 45
4. पुरोहित भी कहे जाते थे जिसका व्युत्पत्तिक अर्थ है 'आगे धरा हुआ, नियुक्त' ।
5. टीले, वही, पृ, 129-30 | 'यत्र किया जाने पर भी मनु ने स्त्रियों को दोनों के लिए ही समान रूप से उसने और अध्या. 4 श्लो, 80 । दत्ते. वही,
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नार्यस्तु पण्यन्ते रमन्ते तत्र देवता' । पंक्ति का उद्धरण बहुधा प्रस्तुत संस्कार क्रिया का निषेध ही किया है। यह निषेध स्त्रियों और शूद्रों किया है । देखो मनुस्मृति अध्या. 5 श्लो. 155; अध्या. 9 श्लो, 18 ; पृ. 255 1 6. हापकिस, वही, पृ. 282 1
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