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इस ब्राह्मणधर्म के साथ ही वर्ण-व्यवस्था याने जातिवाद की सजड़ता का जन्म हुआ जो कि 'वीरगाथा (महाभारत) काल में फिर भी लचीली संस्था ही थी । परन्तु बुद्धिवादी युग में इस जाति प्रथा के नियम अधिक कड़क और अनमनशील हो गए यहां तक कि निम्न जाति के लोगों का धर्माधिकारिता की सीमा में प्रवेश करना तक भी असम्भव हो गया था ।" इस स्थिति का परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मण परिश्रम करने से बिलकुल विमुख हो गए और अन्य वर्गों को उनके परिश्रम का कुछ भी एवज दिए बिना ही उन परिश्रमी वर्गों की सम्पत्ति पर ही निर्वाह करने वाले होते गए । 2 धीरे-धीरे वे यहां तक निष्कर्मा बन गए कि परिश्रम से मुक्ति प्राप्ति की योग्यता के लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्त करने से भी वे हिचकिचाने लगे। वशिष्ठ को ब्राह्मणों की यह बुराई और अन्याय बहुत ही प्रसह्य हो उठा था धौर इसलिए उसने ऐसे निष्कर्माओं को प्राथव अथवा पोषण देने का ऐसी उग्र भाषा में घोर विरोध किया कि जैसी जीती-जागती प्रजा का हिन्दू धर्म हो तभी प्रयोग की जा सकती थी ।"
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वर्णाश्रम के अधिकारों से उत्पन्न इस अपव्यवहार को लेखनला के सर्वधा प्रभाव अथवा साहित्य लेखन में उसके सामान्यतया प्रयोग ने ब्राह्मणवर्ग के प्रवर्धमान वर्चस्व को और भी बढ़ाने में पूरी-पूरी सहायता की। 1 राजों और उमरावों की प्रजा और घाषित रहते रहते ही उनके कृपापात्र बनने और वह प्रतिपादन करने कि ब्राह्मण के रक्षण और स्वातन्त्र्य की रक्षा करना ही उनका धर्म है, का प्रयत्न करते रहे। धीरे धीरे इन राजों और उमरावों के उपदेष्टा होने के कारण ये लोग एकाधिकारी उपदेष्टा होने का दावा करते हुए श्रुति और स्मृति के रक्षक और विवरणकार ही बन बैठे । " शुरू शुरू में धर्म की अनेक पुस्तकें यज्ञयागादि अनुष्ठानों के उद्देश से ही रची गई थीं।" उन्हीं का चार वेदों में जिनका प्रत्येक का भिन्न भिन्न ब्राह्मण है, समावेश होता है । इन ब्राह्मणों में मुख्य रूप से संकुचित क्रियाकाण्ड, शिशुजनोचित प्राध्यात्मवाद और अनेक नगण्य बातों के विषय में कुसंस्कार सम्पन्न वार्ताएं जैसी कि अपरिमित धार्मिक सत्ताप्राप्त शक्तिशाली और पांडित्यप्रदर्शी गुरुयों से प्राशा की जा सकती है, भरी हुई हैं।""
यज्ञक्रिया इस प्रकार योजित और संगठित हुई थी कि धीरे धीरे वह बहुकष्टसाध्य और जंजाल युक्त होती गई और इसके लिए इनके करानेवालों की संख्या में अधिक वृद्धि होती गई । और ये यज्ञ करानेवाले अनिवार्यतः ब्राह्मण ही होते थे। किसी किसी समय ये यज्ञकरानेवाले यहां तक बढ़ जाते थे कि देवों के प्रति मान भी न्यून
ली. एच. भाग 2 पु. 493
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1. दत्त, वही, पृ. 264 देखों कुक, एम. 2. देखो मैडल ऍशेट इण्डिया. पु. 209 मैक्क्रिडल, 3. 'राजा उस ग्राम को दण्ड देगा जिसमें ब्रह्म अपने पवित्र धर्म और वेद ज्ञान से रहित हो, भिक्षा द्वारा जीवन निर्वाह करेंगे क्योंकि वे लुटेरों को भरण-पोषण देते हैं।' वशिष्ठ, 3, 4 1 देखो व्हूलर से. बु. ई. f. gr. 14, q. 17 1
4. देखो टीले, वही, पृ. 121
5. 'इसी वर्ग में भविष्यकथन विद्या मी एकान्तरूपेण परिसीमित थी और इनके सिवा कोई भी यह व्यवसाय यह
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कला नहीं कर सकता है।' मेक्ॠिण्डेल, वही और वही पृष्ठ । 6. राजसूययज्ञ, पण्वमेवयज्ञ, पुरुषमेपयश, अपराधी मनुष्यों की बलि दी जाती थी यद्यपि इसे सर्वानुमति से उठाया नहीं गया 7. टीले, वही, पृ. 123
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सर्वमेवयज्ञ ही प्रमुख यज्ञ थे। इन चारों यज्ञों में प्राचीन काल में परन्तु जैसे जैसे सदाचार विनम्र होता गया, यह प्रण भी उठती गई। था, फिर भी इसका व्यवहार एक दिन उठ ही गया ।
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