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________________ 112 ] इतना कह देना और आवश्यक है यद्यपि पुराण और जैन दन्तकथा परस्पर बहतांश में एक दूसरे का समर्थन करती हैं, फिर भी खारवेल का शिलालेख जैनकथा का ही इस नन्द राजा को पुराणों के महापद्म नन्द के एवज नन्दराज कह कर समर्थन करता है। जैनों और नंदों के सम्बन्ध में हाथीगुफा का शिलालेख कहता है कि राजा नन्द विजय-चिन्ह रूपसे वहां से एक जन प्रतिमा ले गया था, और यह, जायसवालजी के अनुसार जैसा कि हम आगे के अध्याय में देखेंगे, द्धि करता है कि वैन्दराज जैन था और उडीमा में जैनधर्म बहुत समय पूर्व ही प्रवेश कर गया था। उन्हीं के अनुसार ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि 'विजय-चिन्ह स्वरूप पूजा की कोई मूर्ति उठा ले जाना और उसमें की किसी मूर्ति विशेष के प्रति सम्मान दिखाना परवर्ती इतिहास में एक सुप्रसिद्ध बात देखी जाती है। स्मिथ और शाटियर जैसे विद्वान भी इसका समर्थन करते हैं। स्मिथ के शब्दों में कहें तो 'नंदवंश ने कलिंग पर एक लम्बे समय तक राज्य किया था। नन्दों और खारवेल के समय में कलिंग में जैन धर्म सर्व प्रधान नहीं रहा हो जैसा कि होना चाहिए था, तो भी निश्चय ही वह अति सम्मान का स्थान भोगता था। मैं यह कह दु कि नन्द जैन थे. इस अभिप्राय पर मैं स्वतन्त्र रीति से ही पहुंचा था।' नन्दों की ब्राह्मण-विरोधी उत्पत्ति का विचार करते हुए वे जैन हो इसमें कुछ भी पाश्चर्य की बात नहीं है।" उनके उद्गम के सिवा बौद्धों की भांति ही जैनों को नन्दों के विरूद्ध कहने का कुछ भी नहीं है । डा. शाटियर के अनुसार 'यह बात ऐसा सूचित करती है कि नन्द जैनधर्म के विरूद्ध या प्रतिकूल झुकाव नहीं रखते थे। जैन दन्तकथाएं भी इसका समर्थन इसका समर्थन करती हैं क्योंकि न..वंश के श्रेणीबद्ध अमात्य जैन ही थे जिनमें से पहले अमात्य कल्पक को वह पद स्वीकार करने को बाध्य किया गया था। इस अमात्य की सहायता से राजा नन्द सब क्षत्रिय राजवंशों को निमल कर सका था। जैन यह भी कहते हैं कि अमात्यों की परम्परा उसी वंश में चलती रही थी। नौवें नन्द का अमात्य शकटाल था। उसके दो पुत्र थे, बड़ा स्थूलभद्र और छोटा श्रीयक । शकटाल की मृत्यु के बाद नन्द ने बड़े पुत्र स्थूलभद्र को मंत्री पद स्वीकार करने को कहा । परन्तु उसने संसार की असारता का विचार कर मंत्रीपद लेने से इन्कार कर दिया और जैनधर्म के छठे युगप्रधान सम्मूत 1, 'कलिंग सर्वजीव-धर्म, ब्राह्मणधर्म, बौद्धधर्म और जैनधर्म की मिलीजुली मिश्र संस्कृति थी । यह आश्चर्य की ही बात है कि कोई भी कभी बिलकुल ही लुप्त नहीं हुई थी।' सुब्रह्मनियन, प्रांध्र हिरिसो, पत्रिका सं. ।। 2. जायसवाल, बही, सं 13, पृ. 2450 3. शाटियर, वही, पृ. 164 । 4. स्मिथ, राएसो पत्रिका, 1918, पृ. 5461 5. 'कोई हमें यह समझाने का प्रयत्न करेंगे कि कलिंग जैनी था क्योंकि वह चिर काल तक ब्राह्मण द्वेष नन्दों के अधिकार में रहा था कि जिनके जैन अवशेष आज भी जैपुर जिले के नन्दपुर में पाए जाते हैं...। सुब्रह्मनियन, वही और वही स्थान । .. 6. शाऐंटियर, वही, पृ. 174 । 7. पावश्यकसूत्र, पृ. 692; हेमचन्द्र, वही, श्लो. 73-74, 80 । 8. देखो आवश्यकसूत्र, पृ. 691-692; हेमचन्द्र वही, श्लो. 1-74 । 9. दर्शितः सन् कल्पक इति ते ! राजनः) मीताः...नष्टाः। -अावश्यकसूत्र, पृ. 693; हेमचन्द्र, वही, शलो. 84, - 105-137 । देखो प्रधानवही पृ. 226 । 10. कल्पकस्य वशो नन्दिवंशेन सममनुवर्तते,...-प्रावश्यकसूत्र, 6933; हेमचन्द्र, वही, सर्ग 8, श्लो. 2। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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