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हूं कि इनके देवगिरि की रचना होने का कोई भी डढ़ प्रमाण नहीं है, हम इतना ही कह सकते हैं कि वह इन शास्त्रों के प्रतिसंस्करण का सम्पादक ही या प्रतिसंस्करणकर्ता ही था
रचियता नहीं ।'
श्वेताम्बर जैनों के सिद्धांत ग्रन्थों के विषय में इतना विवेचन ही यहां पर्याप्त है।" उनकी भाषा के सम्बन्ध में, देवगिरि के समय तक की जैन साहित्य की अव्यवस्थित दशा पर से इस अनुमान पर आ सकते हैं कि उत्तराविकार में मिलने वाली भाषा में भी शनैः शनैः परिवर्तन होता गया था फिर भी इतना तो बहुत ही सम्भव प्रतीत होता है कि ई. पूर्व उठी नदी के धर्म-सुधारकों ने कि जिनने लोक समूह के अधिकांश भाग को ब्राह्मण पण्डितों के पुरोहिती ज्ञान के विरोध में मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया था, अपनी देखना के लिए जन साधारण की भाषा ही का उपयोग किया न कि संस्कृत की विद्वद् भोग्य भाषा का लोकसमूह की यह भाषा महावीर के गृह मगध देश की बोलवाल की भाषा ही होगी ऐसा लगता है। फिर भी जैनों द्वारा प्रयुक्त मगधी 'अशोक के शिलालेखों एवं प्राकृत वैयाकरणों की मागघी से बहुत ही कम मेल खाती है। यही कारण है कि जैनों द्वारा प्रयुक्त भाजा मिश्रित भाषा याने 'अर्थ - मागघी' कही जाती है कि जो बहुत्रांश में मागधी से ही बनी है परन्तु जिसने परदेशी बोलियों के तत्वों को भी ग्रहण कर लिया है। महावीर ने अपने संसर्ग में पाने वाले लोगों को अपनी बात समझाने के लिए इसी मिश्र भाषा का उपयोग किया था और इसीलिए उनकी भाषा मातृभूमि की सीमा पर के निवासी भी उसे अच्छी प्रकार समझ सकते थे। 4
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जैन दंतकथा के अनुसार प्राचीन सूत्र अर्धमागधी भाषा में ही रचे हुए थे, परन्तु प्राचीन सूत्रों की जैन प्राकृत टीका ग्रन्थों और कवियों की प्राकृत से बहुत विभिन्न है। इस प्राकृतिक भाषा को जैन आ याने ऋषियों की भाषा कहते हैं, जबकि जिस भाषा में सिद्धांत लिखे हुए हैं, वह महाराष्ट्री की निकटतम है और वह जैन महाराष्ट्री कहलाती है । जैन ग्रन्थों को अन्तिम रूप देने के पूर्व जैनों द्वारा प्रयुक्त और विकसित भाषा की विशिष्टता के विवरण में जाने की हमें घावश्यकता नहीं है। इतना भर कहना ही पर्यार्णत है कि 'जब एक बार जैन महाराष्ट्री पवित्र भाषा स्वीकार कर ली गई तो वह जैनों की साहित्यिक भाषा भी उस समय तक बनी रही थी जब तक कि उसे संस्कृत ने स्थानापन्न नहीं कर दिया ।
जैनों के सिद्धांतारिक्त साहित्य में एक ओर अगणित टीका साहित्य है जिसका प्रतिनिधित्व निज्जुत्ति या नियुक्तियां करती हैं और दूसरी ओर वह स्वतंत्र साहित्य है जिनमें कुछ तो साधू - अनुशासन, नीति और सिद्धांत को भोग्य रचनाएं हैं और कुछ काव्य हैं जिनमें जिनों के प्रभाव की स्तुतियां या स्त्रोत भी हैं। परंतु अधिकांश भाग वर्णनात्मक साहित्य का ही है। यह निश्चित प्रतीत होता है कि देवगिरिण द्वारा सिद्धांतों की अंतिम वाचना या संकलन किए जाने के बहुत पूर्व ही जैन साधू श्रागमें पर टीकाएं भाष्य आदि लिखने लग गए थे क्योंकि प्राचीन
1. वही ।
2, दिगम्बरों के सिद्धांत के लिए देखो विटर्निट्ज, वही, पृ. 316: याकोबी वही, प्रस्ता. पृ. 30
3. याकोबी, वही प्रस्ता. पू. 17
4. ग्लांसन्यप, डेर जेनिस्मस, पृ. 84 1
5. पोराणमद्यमागमासानिययं हवइ सुत्तं । हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण गाथा, 287 ।
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6. याकोबी, वही, प्रस्ता. पृ. 20 जैनों के पवित्र ग्रन्थों की भाषा के अधिक विवरण के लिए देखो वही, प्रस्ता. पू. 17 आदि व्लासम्यप, वही, पृ. 81 आदि ।
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