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सिद्धसेन और विक्रम के धर्म-परिवर्तन सम्बन्धी प्राचीन बोर वह जैन दन्तकथा की यथार्थता के विषय में पहले ही विवेचना की जा चुकी है। इसलिए दिवाकर काल के इस विवादास्पद प्रश्न पर फिर से लिखना यहाँ आवश्यक नहीं है। फिर भी दो तथ्य दन्तकथानुसार सिद्धसेन की तिथि के समर्थन में यहां प्रस्तुत किए जा सकते हैं। एक तो यह कि वाचक-श्रमरण की ही भांति, सिद्धसेन दिवाकर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों को मान्य है दूसरा यह कि दोनों सम्प्रदायों के साहित्य में इस प्राचार्य सम्बन्धी उल्लेख प्राचीन है।'
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महान् सिद्धयेनरचित साहित्य में जैन-न्याय पौर बत्तीस बत्तीसियां कही जाती है उनने कुल कितने ग्रन्थ रचे इस अप्रधान बात को दूर रखते हुए यह कहा जा सकता है कि यही प्रकरण लिखनेवाले सर्व प्रथम श्वेताम्बराचार्य है। प्रकरण उस प्रद्धत्यानुसार रचना को कहा जाता है जिसमें प्रत्येक विषय वैज्ञानिक रीति से चर्चे जाते हैं । इसमें सैद्धांतिक प्रयों की भांति चाहे जैसे भिन्न भिन्न प्रथवा दन्तकथा रूप में विषय की चर्चा नहीं की जा सकती है यह प्राकृत में भी रखा जा सकता है. परन्तु सामान्यतः यह संस्कृत रचना ही होती है। सिद्धसेन धौर धन्य महान् प्राचार्यो ने ई. पूर्व और पश्चात् की कुछ सदियों में इस प्रकार के प्रयत्न भारतीय मानसिक संस्कृति के उच्चतम स्तर तक श्वेताम्बरों को ऊंचा उठाने के लिए किए जिनकी समाप्ति हेमचन्द्राचार्य द्वारा हुई थी कि जिनने प्रमुख भारतीय विज्ञानों की प्रशसनीय पाठ्य पुस्तकें भी जैनधर्म सम्बन्धी मान्य ग्रन्थों के अतिरिक्त लिखी थीं ।
यायावतार और सम्मतितर्क दो सुप्रसिद्ध ग्रन्थों के रचियत रूप से सिद्धसेन की विशेष प्रसिद्धी है। पहला न्याय का पद्यमय ग्रन्थ है जिसमें न्याय और प्रमाण का स्पष्ट विवेचन किया गया है। दूसरा सामान्य दर्शन का एक मात्र प्राकृत भाषा का पद्यमय ग्रन्थ है जिसमें तर्कशास्त्र के सिद्धांतों का सूक्ष्म विवेचन किया गया है। इन दोनों विद्वता पूर्णं ग्रन्थों की रचना के पूर्व जैन न्याय विषयक किसी भी प्रमाणभूत ग्रन्थ का अस्तित्व जानने में नहीं आया हालांकि इस न्यायशास्त्र के सिद्धांत तो धर्म और नीति के साहित्य में यत्र तत्र मिलते ही रहे थे । डा. विद्याभूषरण कहते हैं कि भारतवर्ष के अन्य धर्मों की भांति ही जैनों के प्राचीन ग्रन्थों में धर्म और नीति की चर्चा में न्याय का मिश्रण हुआ तो था ही । परन्तु न्याय के ही विषय की विशुद्ध चर्चा करने का प्रथम मान सिद्धसेन दिवाकर को ही है क्योंकि विद्या की अनेक शाखाओं में से दोहन कर बत्तीस श्लोकों में न्याय विषय पर न्यायावतार नामक ग्रन्थ लिख कर इस विषय को पृथक रूप दे देने वाला जैनों में सिद्धसेन ही सब से पहला हैं । "
भद्रबाहु की ही भांति सिद्धसेन के साथ भी जैनों की एक स्तुति को पार्श्वनाथ की ही है, जुड़ी हुई है। इस स्तुति का नाम 'कल्याणमन्दिर स्तोत्र' है इसके विषय में निम्न दन्तकथा है: एक समय सिद्धसेन ने अपने गुरू के समक्ष अभिमान पूर्वक यह प्रकट किया कि समग्र प्राकृत जैन साहित्य को वह संस्कृत में कर देने की इच्छा रखता है। ऐसे देवद्वेषी या पाखण्डी कथन के पाप के प्रायश्चित्त स्वरूप गुरू ने उन्हें पारांचिक प्रायश्चित्त का दण्ड दिया जिसके अनुसार बारह वर्ष तक का मौन धारण करते हुए उन्हें तीर्थ भ्रमण करते रहना था । इस प्रायश्चित्त को करते हुए एकदा वे उज्जैन में पहुँचे और वहाँ के महाकाल मन्दिर में उनने निवास किया। वहाँ उनने शिव
1. हीरालाल, रायबहादुर, वही, प्रस्ता. पृ. 13 । 2. याकोबी, समराइच्च कहा, प्रस्ता. पृ. 12
3. विद्ययाभूपरण, न्यायावतार, प्रस्ता. 11
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