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________________ 200 ] शती में हुए श्यामा प्रज्ञापनासूत्र के कर्ता उमास्वाति के थे। ! शिष्य 1 पक्षान्तर में श्री हीरालाल के अनुसार इस प्रश्न का स्पष्टीकरण यह है कि उमास्वाति ने दोनों सम्प्रदायों के विवादास्पद विषयों को स्पर्श ही नहीं किया है । " ये उमास्पातिवाचक धमरा रूप से विशेष प्रख्यात हैं। तस्वार्थाविगमसूत्र की श्वेताम्बरकारिका के अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि वे नगरवाचक भी कहे जाते थे । वे स्वयम् प्रशस्ति में कहते हैं कि उनका जन्म न्यग्रोधिका में हुआ था, परन्तु ये कुसमपुर या पाटलीपुत्र में ही रहते थे। हिन्दू दार्शनिक माधवाचार्य उनका परिचय उमास्वातिवाचकाचार्य कह कर कराता है। इस महान् प्राचार्य की कृतियों के विषय में यह किंवदन्ती है कि इनने कोई पांचसौ प्रकरणों की रचना की थी परन्तु उनमें से केवल पांच ही धान उपलब्ध हैं। इन सब की याने 1. तत्वार्थाधिगमसूत्र ; 2. इसी का भाष्य; 3. पूजाप्रकरण 4. जम्बूद्वीपसमास; और 5. प्रशमरति की प्रशस्ति में जैसी कि वह बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी के इनके संस्करणों में प्रकाशित हुई है, इस प्रकार तिला हुआ है:'कृतिः सिताम्वराचार्यस्य महाकवे समास्थातिवाचकस्य इति । 15 उपरोक्त ग्रन्थों में से तस्यार्थाधिगगन पर ही उनकी कीर्ति प्राधारित है कितने ही मूल्य ग्रन्थरत्न कि जो काल कराल ग्रास बनने से बच गए उनमें का यह अति मूल्यवान है। जैनों के आगम साहित्य का दोहन कर जैन तत्वज्ञान को संस्कृत सूत्रों में रचने की पद्धति में प्रवेश करनेवाले ये ही सबसे पहले जैनाचार्य हैं । उनका यह ग्रन्थ इसीलिए जैन इंजील (बाईबल) रूप माना जाता है। जैनों के सभी सम्प्रदाय इसको मानते हैं। यह कितनी प्रामाणिक और उत्तम कृति है, इसकी प्रतीति उसके प्रति जैन टीकाकारों के दिए लक्ष्य से स्पष्ट समझ में ग्राती है। इस पर कमती से कमती इकतीस टीकाएं प्राज उपलब्ध हैं। इसके सूत्रो में कोई भी जैन सिद्धान्त या मान्यता प्रत्यक्ष या परोक्ष रीति से व्यक्त हुए बिना नहीं रही है। तस्वार्थसूत्र निःसंदेह जैन तत्वज्ञान की अमूल्य और पवित्र निधि है ।" उमास्यातिवाचक के सम्बन्ध में इस प्रस्ताविक विवेचन के बाद हम विक्रमादित्य युग के सुप्रसिद्ध जैन साहित्याकाश के प्रकाशमान नक्षत्र श्री सिद्धसेन दिवाकर औौर श्री पादलिप्ताचार्य का संक्षेप में विचार करेंगे।" 1. देखो क्लाट वही, पृ. 251 श्वेताम्बर पट्टावलियों के इस वर्णन में उसका ई. पूर्व अनेक सदियों में हुआ बताती है। महावीर के दसवें पट्टधर पायें महागिरि का निधन निर्वाण पश्चात् 249 में वर्ष में हुआ था। उनके दो शिष्य थे :- बहुल और बलिस्सह । बलिस्सह के शिष्य थे उमास्वाति । देखो वही पृ. 246, 251 | दिगम्बर वृत्तान्तों में उमास्वाति भद्रबाहु से छठे पट्टधर कहे गए हैं और कुन्दकदाचार्य के उत्तराधिकारी उनका निधन काल वि. सम्यत् 142 याने ई. 85 बताया है। देखो हरनोली इण्डि एण्टी, पुस्त. 20. पृ. 341 उमास्वाति के विशेष विवरण के लिए देखो हीरालाल रायबहादुर, वही, प्रस्ता. पृ. 7-9; पेटरसन, रिपोर्ट प्रान संस्कृत मैन्युस्क्रिपट्स, पुस्त. 4 प्रस्ता. पृ. 16: जैनी से बुजे, पुम्त 2 प्रस्ता. पृ. 7-9 1 ! 2. हीरालाल रायबहादुर, वही प्रस्ता. पृ. 9 1 , 3. तत्वार्थाधिगमसूत्र ( संपा : मोतीलाल लधाजी), (अध्याय 10, पृ. 2031 4. देखो कोव्स एण्ड नौफ, सर्वदर्शनसंग्रह, पृ. 55 5. हीरालाल, रायबहादुर, वही, प्रस्ता. पृ. 8 । 6. जैनी, वही. प्रस्ता. पू. 8 । Jain Education International 7. राइस ई. पी., कनैरीज लिटरेचर, पृ. 41 । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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