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________________ [ 199 जिसकी तिथि (वीरात् 980 = ई. सन 454 या 514) उसी में दी हुई है, वराहमिहिर के पहले की नहीं तो भी कम से कम समयमयी तो है ही।। उवसग्गहर स्रोत्र का रचियता भद्रबाह को मानने की दन्तकथा इस इलोक पर बंधी हुई हैं : उवसग्गहरं थुत्त काऊरणं जेण संधकल्लाणं । करुणापरेण विहिनं स भद्दबाहं गुरू जयउ ।। अर्थात् 'संघ के कल्याण के लिए दयाद गुरू भद्रबाहु ने उवसग्गहर स्रोत्र की रचना की, उनकी जय हो।' स्तोत्र का विषय है भगवान् पार्श्वनाथ का प्रभावानुवाद । इस स्रोत्र की अन्तिम गाथा से यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है जो इस प्राशय की है:- 'हे महायश ! भक्ति के समूह से पूर्ण भरे हुए अन्तःकरण से यह स्तवना मैं ने की है, इसलिए हे देव ! पार्श्व जिनचन्द्र ! मुझे जन्मोजन्म में बोधबीज देते रहो ।' भद्रबाहु को इस स्तुति का रचयिता स्वीकार करते हुए याकोबी कहता है कि यदि ऐसा हो तो जैन स्तुतियों के नए विस्तृत साहित्य में यह एक प्राचीनतम उदाहरण भी है। 4 भद्रबाह के अतिरिक्त भी अनेक अन्य स्वतन्त्र ग्रन्थ यद्यपि उपलब्ध हैं, परन्तु हम उनमें से कुछ ही अत्यन्त महत्व के ग्रन्थों का यहां वर्णन करेंगे। इन ग्रन्थों में सब से पहला जो हमारा ध्यान आकर्षित करता है वह धर्मदासगरिण की उपदेशमाला है कि जिसको महावीर का ही समकालिक होने का जैनों का दावा है। इस ग्रन्थ में गृहस्थ एवम् साधुओं के लिए नैतिक नियमों का संग्रह किया गया है, इसकी ख्याति इसकी अनेक टीकानों पर से हैं जिनमें से दो टीकाएं तो इसवी सन् की नौवीं सदी की हैं। धर्मदास के बाद उमास्वाति का स्थान है कि जो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में मान्य है । विटर्निट्ज के अनुसार, चूकि वह ऐसी मान्यताओं का प्रतीक है कि जो दिगम्बरों की मान्यता से मेल नहीं खाती हैं, इसलिए वे उसे अपने में का एक नहीं कह सकते हैं । उमास्वाति के किन तथ्यों पर यह बात कही जा सकती है या समझा जाना चाहिए, हम कुछ भी नहीं कह सकते हैं । फिर भी विद्वान पण्डित का इस परिणाम पर अन्य विद्वानों की भांति ही पहुंचना उचित लगता है कि सम्भवतः वह महान् प्राचार्य कास पूर्व समय में होना चाहिए कि जब जनसंघ इन दो सम्प्रदायों से स्पष्ट रूप से विभक्त नहीं हो गया था। इसका तपागच्छ पट्टावली से भी समर्थन होता है। उसके अनुसार वीरात चौथी 1. याकोबी, वही, प्रस्ता. पृ. 14 । भद्रबाह 2 य सम्बन्धी दिगम्बरों की दन्तकथा के लिए और श्वेताम्बरों की भद्रबाहु एवम् वराहमिहिर सम्बन्धी दन्तकथा के लिए देखो वही, पृ. 13, 30 । विद्याभूषण मैडीवल स्कूल आफ इण्डियन लोजिक, पृ. 5-6।। 2. क्लपसूत्र, सुबोधिका टीका पृ. 162 । 3. देखो याकोबी, वही, प्रस्ता. पृ. 13। 4. देखो वही, पृ. 12 । 5. देखो धर्मदासगरिण, उपदेशमाला (जैनधर्म प्रसारक समा, भावनगर), पृ, 2।। 6. देखो विटनिट्ज, वही, पृ. 343; मैक्डोन्यल, इण्डियाज पास्ट, पृ. 74; श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 82 । 7. देखो विनिट्ज, वही, पृ. 351; हीरालाल, रायबहादुर, कैटेलोग आफ मैन्युस्क्रिप्ट्स इन सी. पी. एण्ड बरार, प्रस्ता. पृ. 7-9; विद्याभूषण, वही, पृ.91 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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