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________________ 128 ] सहारे और उत्तर में गोदावरी से ऊपर फैली हुई है, प्राचीन काल में कलिंग कहलाती थी। स्थूल रूप में भारत का वह भाग जिसे प्राजकल उड़ीसा पोर गंजम प्रदेश कहा जाता है, इसके अन्तर्गत माना जा सकता है। खारवेल का यह मिलावेल 'भारत के प्राचीन स्मारकों में से एक महान विशिष्ट स्मारक होते हुए भी अत्यन्त जटिल है ।' भगवान् महावीर के अनुयायी प्राचीनतम राजों में से किसी भी राजा का शिलालेख में मिलने वाला नाम एक सम्राट खारवेल का ही है । मौर्य समय के बाद के राजों और उस समय के जैनधर्म के प्रताप की दृष्टि से खारवेल का यह शिलालेख देश में उपलब्ध एक महत्व का ही नहीं अपितु एक मात्र लेख है। जैन इतिहास की दृष्टि से तो यह अनुपम है, परन्तु भारतीय राजसिक और ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसकी श्रगत्यता पूर्व है । श्री आसुतोष मुकर्जी के शब्दों में ऐतिहासिक शोधखोज के साधन रूप लिपिशास्त्र के क्षेत्र में जो भूली हुई अद्भुत लिपि में लिखे लेस खोज निकाले गए हैं और उनसे भूतकाल का द्वार जो उन्मुक्त हुआ है उनमें सम्राट खारवेल का हाथीगुफा का शिलालेख हमारा बहुत ही ध्यान आकर्षित करता है। ई. पूर्व दूसरी सदी के लिखे इस लेख में उड़ीसा के इस सम्राट की बाल्यावस्था से 30 वर्ष अर्थात् उसके राज्यकाल के तेरहवें वर्ष तक का वृत्तांत है । यह लेख एक चट्टान पर उत्कीरिंगत है और ई. 1825 में श्री स्टलिंग की प्राथमिक खोज के बाद सौ वर्ष से बराबर ज्ञात है और तब से अध्येताओं द्वारा यह अध्ययन भी किया जाता रहा है। उसके द्वारा जो ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त हुई है वह विशेष महत्व की है क्योंकि उसमें उस समय के मगध के राजा, मथुरा के ग्रीक राजा, गोरथ गिरि (बराबर की टेकरियां) और राजगृह का गढ़, पाटलीपुत्र के गांगेय स्थान पर दक्खन के राजा सातकर्णी का उल्लेख है । ब्राह्मी लिपि में लिखे अशोक के शिलालेखों से दूसरे नम्बर के, और ई. चौथी सदी के समुद्रगुप्त के शिलालेखों की समान श्रेणी के इस शिलालेख की खोज से अनेक और फलप्रद अभ्यसनीय परिणाम निकले है । "है भारत में बनारस और पुरी दो अत्यन्त महत्व के ऐतिहासिक घटनाओं और पावनता दोनों ही दृष्टि से ही प्रगट हुई है और यहां ही प्रजा की बुद्धि और हाद तीर्थधाम हैं जो प्रजा की अविस्मरणीय स्मृति में संगृहित प्रसिद्ध हैं । प्रजा की आंतरिक भक्ति अनेक प्रकार से यहां का समानान्तर रीति से विकास हुआ है। 3 हमारे यह मानने के अनेक कारण हैं कि उड़ीसा कि जो अब हिन्दूधर्म का उद्यान उसके जगन्नाथ रूपी यरूशलम के कारण है तीसरी सदी ई. पूर्व से ई. पश्चात् पाठवीं या नवीं सदी तक बौद्ध और जैनों का प्रभावशाली केन्द्र रहा था। बौद्धधर्म ने महान् मीयंराज प्रशोक की कलिंग विजय के समय याने ई. पूर्व 262 से यहां अपना प्रभाव जमाना प्रारम्भ किया था परन्तु उसके मरते ही मौर्य सम्राज्य शीघ्रता से क्षीण होने लगा और मीयों के राजपुरोहित एवं ब्राह्मण प्रतिक्रियावादियों के महान् संवल पुष्यमित्र ने राजगद्दी हड़प कर बौद्धधर्म को भारतवर्ष में बहुत भारी धक्का दिया ।" परन्तु वह भी साम्राज्य का आनन्द निष्कंटक नहीं भोग सका । दक्षिण में महान वंश के साथ साथ मौर्य साम्राज्य के पश्चात् जो दूसरा राजवंश उठा वह था महामेघवाहन खारवेल 1. वही, पृ. 534 2. विउप्रा पत्रिका स. 10. पृ. 9-101 सं. 4. गंगूली, उड़ीसा एण्ड हा रिमेंस एसेंट एण्ड मैडीवल, पृ. 17 5. मजुमदार, हिन्दू हिस्ट्री 2य संस्करण, पृ. 636 1 Jain Education International 3. एसो पत्रिका भाग 28 सं. 1 से 5 (1859) पृ. 186 | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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