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के नेतृत्व में सुप्रख्यात चेदि वंश जिसका पूर्वी समुद्रतट का समतल प्रदेश निवास स्थान था। यह चेदिवंश उत्तर के ब्राह्मण-प्रतिक्रियावादियों को अच्छा प्रत्याघाती सिद्ध हुआ ।।
__ इस प्रकार ई. पूर्व दूसरी सदी में ब्राह्मण, जैन और बौद्ध तीनों ही धर्म कलिंग में चल रहे थे परन्तु जैनधर्म को राजधर्म होने का सौभाग्य प्राप्त था । चीनी-पर्यटक ह्य एनत्सांग जिसने कि ई. 629 से 645 तक कलिंग का भ्रमण किया था, जैनों की तब वहां बड़ी संख्या बताते हुए उसे जैनधर्म का गढ़ कहा है । वह कहता है कि 'वहां अनेक प्रकार के नास्तिक थे परन्तु उनमें अधिक संख्या निर्ग्रन्थों (नी-किन के अनुयायी) की थी।"
मातृभूमि मगध में से दक्षिण-पूर्व की ओर कलिंग तक हुई जैनधर्म की यह स्पष्ट प्रगति है । उड़ीसा के सम्राट खारषेल और उसकी सम्राजी के खण्डगिरि पर के दो शिलालेख जैनों की इस प्रगति को प्रमाणित करते हैं
और इस ऐतिहासिक सत्य को हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं। यह सम्राट ई. पूर्व दूसरी शती के मध्य में याने ई. पूर्व 18 3 से 152 में भारतवर्ष के पूर्वी तट पर राज्य करता था । उदयगिरि और खण्डगिरि पर की अन्य गुफाएं एवं मन्दिरों के ध्वंसावशेषों से भी इसका समर्थन होता है । यह दोनों टेकरियां भुवनेश्वर के उत्तर पश्चिम में पांच मील की दूरी पर हैं और दोनों ही उस गिरिवर्त्म द्वारा पृथक पृथक कर दी गई हैं कि जो भुवनेश्वर से वहां पहुंचने के मार्ग की सलगता में है। फिर उन टेकरियों में रहनेवाली अनेक जातियों के नाम जो कि निम्न जातियों में भी निम्न प्राज मानी जाती हैं, जैनों के प्राचीन ग्रंथ अंग और उपांग में मिलते हैं और वहां इन जातियों की भाषा को म्लेच्छ भाषा बताया है।
उपरोक्त अभिलेखों में प्रथम और सब से बड़ा खारवेल का शिलालेख है और उसका प्रारम्भ जैन पद्धत्यानुसार मंगलाचरण से हमा है। उड़ीसा में जैनधर्म प्रवेश होकर अन्तिम तीर्थकर महावीर के निर्वाण के 100 वर्ष पश्चात् ही जैनधर्म वहां का राजधर्म भी बन गया था यह सब इस शिलालेख से प्रमाणित होता है । स्वर्गपुरी का दूसरा लेख यह प्रमाणित करता है कि खारवेल की प्रधान महिषी ने कलिंग में श्रमरणों के लिए एक मन्दिर और गुफा बंधवाई थी।
हाथीगुफा शिलालेख का सूक्ष्म विचार करने के पूर्व पास-पास के खण्डरों से हमें क्या सूचना मिलती है उसका हम विचार कर लें। जिला गजेटीयर याने विवरणिका के अनुसार यह निश्चित बात है कि मौर्य सम्राट अशोक के समय में अनेक जैन यहां बस गए थे क्योंकि उदयगिरि और खण्डगिरी की रेतिया पत्थर की टेकरियां उनके तपस्वियों के विश्रामस्थान रूप अनेक गुफाओं से घिरी हुई हैं जिनमें से कुछ में मौर्य युग की ब्राझी अक्षरों में शिलालेख हैं। ये सब गुफाएं जैनों के धार्मिक उपयोग के लिए ही बनाई गई मालूम होती हैं क्योंकि अनेक सदियों तक जैन साधुओं ने उनका उपयोग किया था ऐसा लगता है।
यहां यह कह दें कि उड़ीसा में बौद्ध और जैन काल की स्थपित प्रगति में गुफा मन्दिर एक प्रमुखता थी। हम बौद्ध और जैन दोनों की बात इसलिए करते हैं कि खण्ड गिरि की कुछ गुफाओं जैसे कि रानीगुफा और अनंत
1. कहिई, भाग 1, पृ. 518, 53412. बील, सी-यू-को, भाग 2, पृ. 208 । 3. बिउप्रा, पत्रिका, सं. 13, पृ. 244 । 4. मिलनी के सूपारो और प्टोलमे के सबराई रूप में इनकी पहचान की गई है। जैन साहित्य सन्दर्भ के लिए देखो ___ व्यंवर, इण्डि. एण्टी., पुस्त. 19, पृ. 65, 69; पु. 20, पृ. 25, 368, 374 । 5. बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, पुरी, पृ. 24। 6. गंगूली, वही, पृ. 31 ।
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