SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौथा अध्याय कलिंग - देश में जैनधर्म "कलिंग देश में जैनधर्म" से यहां प्रमुख रूप से खारवेल के राज्यकाल में जैनधर्म का इतिहास ही प्रभिप्रेत है । परन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि खारवेल से पूर्व कलिंग - देश में जैनधर्म के कोई चिन्ह ही नहीं थे । ऐसा कहने से तो हाथीगुफा के शिलालेख, ई. पूर्व पांचवीं और चौथी शती के स्मारकों से वहां के स्थापत्य और शिल्प की सभ्यता एवम् जैनगमों में अत्यन्त पूज्य ग्रन्थ में से निकलने वाले निष्कर्षो से ही इन्कार करना हो जाएगा। फिर भी यह तो स्वीकार करना ही चाहिए कि खारवेल के हाथीगुफा के और उसी की रानी के स्वर्गपुरी के शिलालेख के अतिरिक्त कोई भी अन्य साधन हमें उपलब्ध नहीं है कि जिसके निश्चित आधार पर हम इन देश के जैन इतिहास के अपने अनुमान खड़े कर सकते हैं। [ 127 यह तो पहले ही कहा जा चुका है कि महावीर के बाद होने वाले शैशुनाग, नन्द, मौर्य और अन्य राज्यवंशों के अनेक राजों, जैन दन्तकथाओं और इतिहास के अनुसार, अपने-अपने समय में जैनधर्म का या तो धनुषायी से या उसके सहायक। इसमें सन्देह नहीं कि ये दन्तकथाएं और इतिहास अनेक जैन और प्रर्जन लेखकों द्वारा समर्थित हैं. फिर भी विशुद्ध ऐतिहासिक प्रमाणों की दृष्टि से सिवा एक चन्द्रगुप्त के धौर कोई भी राजा उस महान् जेदी' सम्राट खारवेल से तुलनीय नहीं है कि जो उसके ही एक शिलालेखानुसार, जैनधर्मी था । यह सम्राट खारवेल कब, कहां और कितने समय तक राज करता रहा था और वह जैन था या नहीं, इसका प्रमुख ऐतिहासिक प्रमाण तत्कालीन हाथीगुफा का वह शिलालेख ही है। वह कलिंग का एक महान सम्राट था इस तथ्य को यद्यपि अस्वीकार नहीं किया जा सकता है फिर भी उस कलिंग देश की सीमाएं क्या थी यह ठीक-ठीक नहीं बताया जा सकता है । मौर्य साम्राज्य के पतन पर कलिंग ने उसके नेतृत्व में विप्लव किया और स्वतन्त्र हो गया था। तिलंगाना के उत्तर बंगाल की खाड़ी के किनारे-किनारे लगा था और पूर्वीघाट के बीच के क्षेत्र को कलिंग की सीमा कहना उचित नहीं मालूम होता है । " भूमि को वह पट्टी जो बंगाल की खाड़ी के सहारे 1. प्रारम्भ से ही यह स्पष्ट समझ लेने की बात है कि कलिंग में जैनधर्म की कालक्रमानुसार उन्नति की खोज करना व्यवहारतया असम्भव है और वस्तुतः यह वांछनीय भी हमारे उद्देश के लिए नहीं है। हमारे लिए तो इतना ही आवश्यक है कि आज उपलब्ध प्राचीन व अर्वाचीन, ऐतिहासिक स्मारकों को लेकर उस युग के समकालिक ऐतिहासिक वातावरण को यथा संभव ध्यान में रखते हुए ही उनसे अपने निष्कर्ष हम निकालें । Jain Education International 2. चेदियों के सम्बन्ध में हम जानते हैं कि वैदिक और प्रार्थ काल में वह एक सुप्रसिद्ध राजवंश था जो कि महाकोसल से जहां कि वे परवर्ती इतिहास में भी पाए जाते हैं उड़ीसा में पाया था। "यह सुनिश्चित है कि इन चेदियों की एक गादी अति प्राचीन काल में उड़ीसा के ग्रास पास कहीं थी ।" - बिना पत्रिका, सं. 1 पृ. 223 3. केहि भाग 1 पु. 601 1. 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy