SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ 181 विद्वान ई.526 में पूरा हो जाना दिखाते हैं। स्मिथ और विलबरफोर्स-व्यल के अनुसार भटार्क ने ई. 490 में इस वंश की स्थापना की थी। भटार्क और ध्र वसेन के बीच में होने वाले राजा दो भाइयों ने अल्प काल तक ही राज्य किया होगा, और इस प्रकार ध्र वसेन 1 मई.526 में वल्लभी की गद्दी पर पाया होगा। इसका समर्थन इस बात से भी होता है कि वल्लभी वंश का सातवां राजा धरसेन 2 य ई. 569 में उस गद्दी पर आया था । वल्लभीपति ध्र वसेन की संरक्षकता में एकत्र हए जैन श्रमसंघ की चर्चा आगे के अध्याय में की जाएगी। यहां तो बस इतना ही कह देना पर्याप्त हैं कि जैनधर्म के मूल शास्त्र और अन्य साहित्य इस युग में लिख कर पुस्तकारूढ़ किए गए थे और जैन इतिहास में स्मृति परम्परा का युग तभी से समाप्त हो गया। जैन इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना का सम्बन्ध गुप्तवंश के साथ ही है, यह भी द्रष्टव्य है। इस समय तक जैनधर्म सारे भारतवर्ष में बहुत कुछ फैल गया था और इस तथ्य को किसी भी प्रकार अस्वीकार नहीं किया जा सकता है । जैन जाति का उल्लेख करते शिलालेख ई. छठी सदी और उसके बाद संख्या में बढ़ जाते हैं । गुप्त साम्राज्य के अन्त हो जाने के पश्चात् भारत वर्ष का भ्रमण करनेवाले चीनी पर्यटक ह्य एनत्सांग ने भारत और उसकी सीमा के बाहर भी जैनधर्मको फैला हुआ देखा था। जैनधर्म के विषय में ऐसी बिखरी सूचनाओं का अनुसरण करना निःसंदेह बड़ा ही रोचक होगा, परन्तु ऐसा करना हमारे क्षेत्र के बाहर याने विषयांतर ही होगा। उद्धृत अभिलेख इस कथन का समर्थन करने के लिए पर्याप्त हैं कि महावीर निर्वाण के बाद की प्रथम पांच सदियों में बौद्ध दन्तकथा और यथार्थ ऐतिहासिक प्रमाण दोनों ही इस बात की साक्षी देते हैं कि बौद्धधर्म से बिल्कुल ही स्वतन्त्र रूप में प्रमुख धर्म रूप से देश में जैनधर्म अस्तित्व भोग रहा था। ऐतिहासिक प्रमाणों में कुछ ऐसे भी हैं कि जो इस शंका का बिलकुल निरसन कर देते हैं कि जैनों की दन्तकथाएं स्वयम् ही झूठी ठहरती है। 1. ध्र वसेन 1 म, वल्लभी का मैत्रक राजा, ई. 526-540 में राज्य करता था। -बान्यॆट, वही, पृ. 50 । “अब चूकि वल्लभी का यह ध्र वसेन 1 म ई. 526 में राजगद्दी पर बैठा कहा जाता है...।" -शाटियर, उत्तराध्ययनसूत्र, प्रस्ता. पृ. 161 विद्वान पण्डित की यह तिथि महावीर निर्वाण ई. पूर्व 467 पर और जैन शास्त्र-वाचना की तिथि वीरात् 993 पर आधारित है। वाचना की दूसरी तिथि बीरात् 980 है और इस गणना से वह ई. 514 के लगभग पाती है । देखो याकोबी कल्पसूत्र ,प्रस्ता. पृ. 15 1 फार्कहर, रिलीजस लिटरेचर ऑफ इण्डिया, पृ. 163 । इन दोनों तिथियों में अन्तर इसलिए है कि वीरात् 980 में जैनागम निश्चित रूप में लिपिबद्ध हुए थे और वीरात् 993 में ध्र वसेन प्रथम के आश्रम में प्रानन्दपुर के जनसंघ के सामने कल्पसूत्र पहले पहल पढ़ा गया था। नवशताशीतितमवर्षे कल्पस्य पुस्तके लिखनं नवशतत्रिनवतितमवर्षे च कल्पस्य पर्षद्वाचनेति ।-कल्पसूत्र, सुबोधिका-टीका, सूत्त 148, प. 126। वीरात 980 और 993 की दोनों तिथियों के लिए देखो सेबुई, पुस्त. 22, पृ. 270 भी। 2. देखो स्मिथ, वही और वही स्थान; विलबरफोर्स-ब्यैल, वही, पृ. 38। 3. देखो वही, पृ. 391 “धरसेन 2 य...ई. 573-589 तक राज्य करता था।" -बान्यैट, वही, पृ. 51 । 4. र एनत्सांग का दिगम्बरों या निर्ग्रन्थों के कैपिशी में देखे जाने का उल्लेख...इस तथ्य का द्योतक है कि वे, कम से कम उत्तर-पश्चिम में तो, धर्मप्रचार भारतवर्ष की सीमा से परे करने लग गए थे। इलर, इण्डियन स्पैक्ट प्राफ दी जैनाज, पृ. 3-4, टि. 4; बील, वही, भाग 1, पृ. 55। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy