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थी। इसमें उत्तर भारत के अत्यन्त घनी बस्तीवाले मौर उर्वर प्रदेश सभी छा गए थे। पूर्व में ब्रह्मपुत्र से लेकर पश्चिम में जमना और चम्बल नदी तक, और उत्तर में हिमालय की तलेटी से दक्षिण में नर्मदा तक वह साम्राज्य फैला हुआ था। इस विस्तृत सीमा के आगे भी मासाम और गांगेय ( डेल्टा ) व द्वीप के सीमान्त प्रदेश और हिमालय की दक्षिणी ढाल के राज्य, एवम् राजपूताना और मालवा के स्वतन्त्र कबीले उस साम्राज्य से सहायक संधियों द्वारा संलग्न थे । पक्षान्तर में दक्षिण के प्रायः सारे राज्यों में सम्राट की सेना छारखार कर उनसे अपनी सार्वभौम सत्ता और अपराजेय शक्ति मनवा आई थी।
गुप्त काल में धर्म की स्थिति क्या थी इस विषय में इतना तो निश्चित है कि इस वंश के राजा प्रत्यक्षतः ब्राह्मणधर्मी हिन्दू थे और उनकी विष्णु के प्रति विशिष्ट भक्ति थी परन्तु वे मी सर्व धर्म के प्रति प्रादर की प्राचीन भारत की रूढ़ि का ही पालन करते थे । विशेष प्रीति नहीं होते हुए भी बौद्ध एवम् जैनधर्म दोनों ही को इनने फलने फूलने दिया था। अनुपान होता है कि वैष्णवधर्म के प्रति विशिष्ट समादर दिखाते हुए सर्वधर्म सहिष्णुता और परधर्मो में हस्तक्षेप नहीं करना ही उनका लक्ष्य था । 2 उदाहरणार्थं चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य या चन्द्रगुप्त त्य, गुप्तवंश का पाँचवा सम्राट, "बौद्ध और जैनधर्म के प्रति सहिष्णु होते हुए भी, स्वयम् सनातनी हिन्दू और विष्णु का परम भक्त था । ""
गुप्त राजों को सर्वदर्शनसार संग्राहक नीति के सिवा भी, जैनों के प्रति उनका विशिष्ट प्रदर, जैसा कि पहले कहा ही जा चुका है, मथुरा के शिलालेखों से प्रमाणित होता है। उन जैन शिलाभिलेखों में तीन, डॉ. बहूलर के अनुसार, गुप्तकाल के हैं । उनमें से एक जो कि नीचे लिखे अनुसार है, के विषय में तो कोई शंका ही नही है क्योंकि वह एक बैठी मूर्ति पर खुदा हुआ है और कुमारगुप्त के राज्यकाल का है। वह लेख इस प्रकार है
जय हो ! 113 वें वर्ष में, महान् राजों के महाराजा और चक्रवर्ती कुमारगुप्त के विजयी राज्य काल में, बीसवें दिन (शीत- मास कार्तिक के) - उस दिन मट्टिमव की पुत्री (और) दारणी ग्रहमित्रपालित की गृहपत्नि सामाढ्या (श्यामाढ्या) ने एक प्रतिमा स्थापन कराई कि जिसको यह प्राज्ञा (उत्सर्ग कराने की कोट्टियगण (और) विद्याधरी शाखा के तिलाचार्य ( दत्तिलाचार्य) ने दी
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दूसरे दोनों शिलालेखों में से एक अच्छी स्थिति में नहीं है । इसलिए उसका संलग्ग अनुवाद देना संभव नहीं है परन्तु उसमें मन्दिर बनवाने या मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाने का अभिलेख ही हो ऐसा लगता है ।" तीसरा लेख लिपि की दृष्टि से, व्हूलर, के मतानुसार, गुप्तकाल का ही लगता है । यह शिलालेख एक छोटी मूर्ति या पूतले के पावपीठ पर खुदा हुम्रा है, इस प्रकार है :--
"सत्तावनवें 57 वें वर्ष में, शीत काल के तीसरे महीने में, तेरहवें दिन में (उपर्युक्त विशेष दिन ) दिन को...
דיין
1. देखो स्मिथ, वही, पृ. 303 साम्राज्य का अस्तित्व
2. “मानासर, इसलिए, गुप्तयुग का संकेत करता लगता है..; समस्त भारत-व्यापी ब्राह्मण धर्म की लोकप्रियता और विशेषतः वैष्णव सम्प्रदाय की और मुकाव एवं बौद्ध व जैनधर्म के प्रति सहिष्णुता और विशेषाभाव...." प्राचार्य, इण्डियन प्राकिटेक्चर प्रकाडिंग
मानासार
शिल्पशास्त्र, पृ. 3941 3. स्मिथ वही पु. 309
4. देखो व्हलर एपी. इण्डि, पुस्त. 2 लेख सं. 38-40, पृ. 1981
5. व्हूलर, वही, लेख सं. 39, पृ. 210 211
7. वही लेख सं. 38, पृ. 210 1
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| 6. वही, लेग सं. 40, पृ. 211
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