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________________ लेखक का प्राक्कथन यह दुर्भाग्य की ही बात है कि भारतीय पुरातत्व के अभ्यास से जैनधर्म के विषय में आज तक जितना भी कहा गया है वह उसकी तुलना में नगण्य है कि जो कहा जाने का शेष है। अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध किया जा सकता है कि यद्धपि जैनधर्म का समकालीन बंधुधर्म, बौद्धधर्म भारतवर्ष की सीमा में से लगभग अदृश्य हो गया था, फिर भी विद्वानों से उसको आवश्यक भ्याय प्राप्त हुआ है। परन्तु जैनधर्म को जो कि देश में श्राज तक भी टिका हुआ है और जिसने इस विशाल देश की संस्कृति एवं उसकी राजकीय और आर्थिक घटनाओं पर भी भारी प्रभाव डाला है, विद्वानों से श्रावश्यक न्याय प्राप्त नहीं हुआ और न आज भी प्राप्त हो रहा है, यह महा वेद की बात है। श्रीमती स्टीवन्सन लिखती है कि यद्यपि जैनधर्म किसी भी रीति से कहीं भी राजधर्म नहीं है फिर भी बाज जो प्रभाव उसका देखा जाता है वह भारी है। उसके साहूकारों और सराफों का धन-वैभव ऋणदाताओं व साहूकारों का सर्वोपरि महान् धर्म होने की उसकी स्थिति से इसका राजकाज पर प्रभाव, विशेष रूप से देशी राज्यों में, सदा ही रहा है। यदि कोई इसके इस प्रभाव में पशंका करता हो तो उसे देशी राज्यों की ओर से प्रकाशित जैनों के पवित्र धार्मिक दिवसों में जीवहिंसा बंद रखने संबंधी प्राज्ञापत्रों की संख्या भर देख लेना चाहिए। भारतवर्ष की जनसंख्या के जैन निःसंदेह एक महान् धौर जाहोजलाली एवं सत्ता की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपू भाग है। हर्टल निःसंदेह सत्य कहता है कि 'भारत की संस्कृति पर और विशेषतया भारत के धर्म और नीति, कला और विद्या, साहित्य और भाषा पर जैनों ने प्राचीन काल में जो प्रभाव डाला था और ग्राम भी जो वे डालते जा रहे हैं, उस सब को समझने और जैन धर्म की उपयोगिता को स्वीकार करने वाले पाश्चात्य विद्वान बहुत ही कम है।" श्री जैनी, श्री जायसवाल, श्री घोषाल आदि कतिपय प्रसिद्ध विद्वानों के सिवा किसी भारतीय विद्वान ने इस दिशा में संतोषप्रद कोई कार्य नहीं किया है । बौद्धधर्म के प्रति विद्वानों का पक्षपात प्रकारण नहीं है क्योंकि वह धर्म एक समय इतना विशाल व्याप्त था कि उसे एशिया महाद्वीप का धर्म कहना भी प्रतिशयोक्ति नहीं था पक्षान्तर में जैनधर्म यद्यपि मर्यादित क्षेत्र में ही रहा था फिर भी श्री नानालाल चि. मेहता के अनुसार 'चीनी तुकंस्तान के गुहा मंदिरों में उसके प्रासंगिक चित्र भी देखने को हमें मिल जाते हैं । 5 जैनधर्म के तुलनात्मक अभ्यास के लिए प्रामाणिक साधन नहीं मिलने एवं बौद्धधर्म के प्रति पक्षपात के कारण इसके विषय में भुलाये में डालने वाले अनुमान कितने ही पाश्वात्य प्रसिद्ध विद्वानों को करने पड़े थे क्योंकि इन दोनों बंधुपम का प्राचीन इतिहास एकसा ही उनके देखने में आया था। सौभाग्य से पिछले कुछ वर्षों में ये विचित्र धनुमान पाश्चात्य एवं पौर्वात्य विद्वानों द्वारा यद्यपि संशोधित हो गए हैं फिर भी इन भ्रामक और असत्य अनुमानों के कुछ उदाहरण यहां देना प्रप्रासंगिक नहीं होगा । श्री यू एस. लिले कहता है कि 'बौद्धधर्म अपनी जन्मभूमि में जैनधर्म के रूप में टिका हुआ है। यह निश्चित बात है कि जब भारतवर्ष से बुद्धधर्म परश्य हो गया, जैनधर्म दिखलाई पड़ा था। 18 श्री विल्सन कहता है कि 'सब 1. देखो जैनी, पाउटलाइन्स ग्रॉफ जैनीम, पु. 03 1 2. स्टीवन्सन श्रीमती दी हार्ट प्रॉफ जंगम, पू. 191 4 3. विल्सन ग्रन्थावली, भाग 1, पृ 347 4. हटल, ऑन दी लिटरेचर ऑफ दी श्वेताम्बराज श्रॉफ गुजरात, पृ. 1 5. मेहता स्टडीज इन इण्डियन पेंटिंग, पृ. 2 हेमचन्द्र घोर अन्य परम्परा के अनुसार भी जैनधर्म देखो हेमचन्द्र, परिशिष्ट पर्वन् याकोबी सम्पादित, पृ. 69, 282 में ही परिसीमित नहीं था। भाग 14, पृ. 144 1 6. जिले Jain Education International इस प्राय 1411 For Private & Personal Use Only याज के भारतवर्ष की सीमा देखो मराठी विश्वकोश, www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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